________________
प्रमेयचन्द्रिका टी० श०५उ०६सू०९ मृषापादिकर्मबंधस्वरूपनिरूपणम् ४४१ क्रियन्ते, यशैव अभिसमागच्छत्ति, तत्रैव प्रतिसंवेदयति, ततः स पश्चाद्वेदयति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ सू० ९ ॥
टीका-पूर्व परानुग्रहस्य फलं प्रतिपादितम् , अथ परपीडनस्य फलं प्रति पादयति-'जे ण भंते ! इत्यादि । 'जेण भंते ! परं अलिएण, असब्भूएण, अब्भकखाणेण अम्भकखाइ,' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! यः खल पुरुषः परम् अन्य जनम् अलीकेन सत्यापलापेन पालितब्रह्मचर्यादि श्रमणविपयेऽपि 'नानेन ब्रह्मचर्यादिकमनुपालितम्' इत्यादि रूपेणेत्यर्थः असद्भूतेन असत्योद्भावनरूपेण 'अतस्करेऽपि तस्करोऽयम् ' इत्यादिना, अभ्याख्यानेन-आभिमुख्येन आख्यानं दोषाविष्करणम् अभ्याख्यानं दोषारोपणं, तेन, उसी प्रकार के कर्मों का बंध होता है-वह जहां जाता है वहां पर उनके फलों को भोगता है, हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है वह ऐसा ही है हे भदन्त ! वह ऐसा ही इस प्रकार कहकर वे गौतम ! अपने स्थानपर बिराजमान हो गये।
टीकार्थ-पूर्व सूत्र में दूसरे के साथ किये गये उपकार का फल सूत्रकार ने प्रकट किया है अब वे इस सूत्रद्वारा परपीडा के फल को प्रकट कर रहे हैं-इसमें-गौतम प्रभु से पूछ रहे हैं कि-(जे णं भंते ! ) हे भदन्त जो मनुष्य (परं) किसी दूसरे मनुष्य को (अलिएणं ) अलीक घचनद्वारा-ब्रह्मचर्य का पलन करने पर भी (इस ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं किया) इत्यादि-इस प्रकार के सत्यको अपलाप करने वाले झूठ तथा असद्भूत-अविद्यमान-अचौर को चौर कहना इस प्रकार के नहीं हुए को उद्भावन करने रूप असत्य-अभ्याख्यान अर्थात् अविद्यमान दोषों को समक्ष प्रकट करने रूप आरोप द्वारा (अभक्खाइ) दक्षित करता है-अर्थात् जो व्यक्ति सत्य के अपलाप-छिपाकर अविद्यमान वस्तु का उद्भावन करना अर्थात् सामने ही दुष्ट अभिप्राय से युक्त होकर झूठे दोषों को प्रकट करना इस प्रकार का अभ्याख्यान-आरोप આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું તે બરાબર છે. આપની વાત યથાર્થ છે.” એ પ્રમાણે કહીને, વંદણા નમસ્કાર કરીને ગૌતમ સ્વામી તેમની જગ્યાએ બેસી ગયા.
ટીકાથ–પૂર્વ સૂત્રમાં અન્ય વ્યક્તિ ઉપર કરવામાં આવેલા ઉપકારનું ફળ બતાવવામાં આવ્યું છે. હવે આ સૂત્રદ્વારા સૂત્રકાર અન્યને કરાતા અભ્યાખ્યાન આળના ફળનું પ્રતિપાદન કરે છે. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન
छ छ है (जे गं भंते ) महन्त ! २ मनुष्य (पर) भी व्यतिन (अलिएणं) असत्य क्यन वा२“असब्भूएणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाइ" तय
म ५६
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪