________________
प्रमेयचन्द्रिका रीका श. उ०६०१ ग्रहपतिभाण्डानिकायस्वरूपनिरूपणम् ३८३ कज्जर, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाण किरिया' हे गौतम ! तस्य गाथापतेः भाण्डं गवेषयतः आरम्भिकी क्रिया क्रियते भवति, पारिग्रहिकी, मायामत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी च क्रिया भवति, किन्तु-'मिच्छादसणकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ," मिथ्यादर्शनपत्ययिकी क्रिया स्यात्-कदाचित् , क्रियतेभवति, स्यात् कदाचित् नो क्रियते नो भवति, यदा खलु गाथापतिमिथ्यादर्शन इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ) हे गौतम ! ( आरभिया किरिया कज्जइ ) आरंभिकी क्रिया उस अपने भाण्डों को तलाश करने वाले गृहस्थ को लगती है-इसी तरह से उसे (परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणिया,) पारिग्रहिकी क्रिया मायाप्रत्ययिकी क्रिया
और अप्रत्यख्यानिकी क्रिया भी लगती हैं। (मिच्छा दंसण किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ ) मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी जो क्रिया है वह उसे लग भी सकती है और नहीं भी लग सकती है। कहने का तात्पर्य ऐसा है कि वह गृहस्थ आरंभ, परिग्रह, माया और अप्रत्याख्यान वाला है अतः इन सय के निमित्त से वह क्रिया करता है इसलिये उसे इन निमित्तक क्रियाएँ लगती हैं। सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी इन निमित्तक होने वाली क्रियाओं का संबंध तो उसके साथ पना ही रहेगा, क्यों कि आरंभ, परिग्रह माया और अप्रत्याख्यान की स्थिति में भी तो सम्यग्दर्शन हो जाता है-अतःइसी भाव को लेकर यहां सूत्रकार ने ऐसा कहा है कि मिथ्यदर्शनप्रत्ययिकी क्रिया उसे लग " गोयमा !" गौतम ! “ आर भिया किरिया कज्जई" पोतानi पासोनी २५ ४२ना२ ते व्यतिने मामी या वाणे छे, मेरी प्रमाणे तेने “ परिगहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चक्खाणिया " परिडिकीया, भाया प्रत्यय: ठिया भने अप्रत्याभ्यानिशी या ५५ सा छे. पण "मिच्छादसणकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ" भिथ्याशन प्रत्ययि लिया तेने व पy શકે છે અને નથી પણ લાગી શક્તી.
કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે તે મનુષ્ય આરંભ, પરિગ્રહ, માયા અને અપ્રત્યાખ્યાનવાળ હોય છે, તે બધાં કારણોને લીધે તે ક્રિયા કરે છે, તે બધાં કારણે ને નિમિત્તે થતી ક્રિયાઓને ભાગી બને છે. સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ થયા પછી પણ આ નિમિત્તોને લીધે થતી ક્રિયાઓને સંબંધ તો તેની સાથે રહેશે જ, કારણ કે આરંભ, પરિગ્રહ, માયા અને અપ્રત્યાખ્યાનની સ્થિતિમાં પણ સમ્યગ્દર્શન તે થઈ જતું હોય છે. એ ભાવને વ્યક્ત કરવાને માટે સૂત્રકારે કહ્યું છે કે
श्री. भगवती सूत्र:४