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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ५ उ८४ सू०१६ चतुर्दशपूर्वधरशक्तिनिरूपणम् ३२९ पदर्शयति च । इदमत्र बोध्यम्-पुद्गलाः खलु पश्चप्रकारका भवन्ति, खण्ड-प्रतर -चूर्णिका-ऽनुतटिको-त्करिकाभेदात् , तत्र लोष्टादिवत् खण्डशो यो भवति स, खण्ड पदव्यपदेश्यः १ अभ्रपटलवत् भेदनयोग्यः प्रतरपदव्यपदेश्यः, २ तिलादिचूर्णवत् चूर्णकरणयोग्यः चूर्णिकापदच्यपदेश्यः ३ कूपादितटभेदवत् भेदनयोग्यः अनुतटिकापदव्यपदेश्यः ४ । एरण्डबीजसदृशः पुद्गलविशेष उत्करिका पदव्यपदेश्यः ५। तत्र पश्चप्रकारेषु विद्यमानेष्वपि पुद्गलेषु यदत्रोत्करिका भेदस्यैव ग्रहणम् , तत् उत्करिकाविशेषाणामेव द्रव्याणां विवक्षितघटादिनिर्वतनसामर्थ्य वर्तते नान्येषामिति सूचयितुमिति, अन्ते उपसंहरनाह-' से तेणप्रकार से वह ऐसा भी करता है। और हजारो घडे बनाकर वह लोगों को दिखा देता है । तात्पर्य यहां इस प्रकार से समझना चाहिये किपुद्गल, खण्ड, प्रतर, चूर्णिका, अनुतटिका और उत्करिका के भेद से पांच प्रकार के होते हैं। लोष्ट आदि की तरह जो पुद्गल खण्ड २ रूप में हो जाता है-वह खंड पुद्गल कहा गया है। अभ्रपटल की तरह जो पुद्गल विखर जाता है वह प्रतर-पुद्गल है। तिल आदि के चूर्ण की तरह जो पुद्गल चूर २ करने योग्य होता है वह चूर्णिका पुद्गल है । कुए आदि के तट की मिट्टी फटकर जो भेद होता है वह अनुतटिका पुद्गल है। और जो पुद्गल एरण्ड के वीज जैसा होता है, वह उत्करिका पुद्गल है। इस तरह से पुगलों के पांच प्रकार हैं-फिर भी यहां पर ४ चार प्रकारों को छोड़कर जो उत्करिका भेद वाला पुद्गल ग्रहण किया गया है उसका कारण यह है कि इस भेदवाला पुद्गल ही इच्छित घट पट आदि रूप पुसना पांय २ नये प्रमाणे छ-(१) 43, (२) प्रत२ (७) यूर्थि, (४) अनुत। सने (५) ४२t. ઢેફાની જેમ જે પુદ્ગલના ખંડ ખંડ થઈ જાય છે, એવા પુદ્ગલને ખંડ પુદ્ગલ કહે છે. અશ્વપટલની જેમ જે પુદ્ગલ વેર વિખેર થઈ જાય છે તેને પ્રતર પુદગલ કહે છે. તલ આદિના ચૂર્ણની જેમ જે પુદ્ગલના ચૂરે શૂરા થઈ શકે છે તે પુદ્ગલને ચૂર્ણિકા પુદ્ગલ કહે છે. કૂવા, તળાવ આદિના કિનારાની માટી ફાટી જતી હોય છે તે પ્રકારના પુદ્ગલને અનુકટિકા પુદગલ કહે છે. જે પુગલ એરંડાના બીજ જેવું હોય છે તેને ઉત્કરિકા પુદ્ગલ કહે છે. આ રીતે પુદગલના પાંચ પ્રકાર હોવા છતાં પણ તેના ચાર પ્રકારને છેડી દઈને અહીં ફક્ત ઉત્કરિકા પુદ્ગલની જ વાત કરવામાં આવે છે. भ४२ श्री. भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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