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प्रमैयचन्द्रिका टोका श० ५ उ०४ सू० ६ नो संयतस्वरूपनिरूपणम् २६७
भगवानाह-' नो इणढे समढे, असब्भूयमेयं देवाणं ' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः नैतदपि समीचीनम् , देवानां कृते असद् भूतमेतत्, असत्कल्पनमिवैतत् संयताऽसंयतपदेनाभिधानम् सर्वथा नोचितम् । अन्ते गौतमः पृच्छति--' से किं खाई णं भंते ! देवा इति वत्तव्वं सिया ? ' तत्-अथ हे भदन्त ! किम्शब्देन 'खाई' इति पुनः खलु देवाः इति वक्तव्यं स्यात् ? केन शब्देन तर्हि देवा व्यवहर्तव्याः ? इत्यर्थः, भगवान् आह-'गोयमा! देवाणं नो संजया ति वत्तव्यं सिया' उत्तर में प्रभु कहते हैं कि जो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात्- संयतासंयत पद से देवोंको कहना सर्वथा उचित नहीं है क्यों कि 'असन्भूयमेयं देवाणं ' ऐसा कथन असद्भूत कल्पना जैसा है । इसका कारण यह है कि संयतासंयत शब्द पंचम गुणस्थान वर्ती श्रावको में व्यवहृत होता है और देवों में यह गुणस्थान होता नहीं है । अतः इस प्रकार के शब्द से वहां पर व्यवहार करना बिलकुल असत्कल्पना जैसा ही है । अब गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं कि-'सेकिं खाइ णं भंते ! देवा इति वत्तवं सिया? गोयमा ! देवाणंनो संजया इ वत्तव्य सिया' हे भदन्त ! तो फिर देवों में किस शब्द से व्यवहार होना चाहिये- अर्थात् देव संयत नहीं, असंयत नहीं,
और संयतासंयत भी नहीं तो इनमें "ये संयत नहीं हैं " इस बात को कहनेवाला कौनसा और शब्द है ? तो इसके समाधान निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं कि ' गोयमा' हे गौतम ! देवाणं नो संजया इवत्तव्य सिया' देवोंमें " देवसंयत नहीं होते हैं " इस बात को प्रकट
उत्तर-(गोयमा ! णो इणढे समठे ) हेवाने सयता सयत ४ा , से बात ५१ ५२।१२ नथी, (असम्भूयमेयं देवाणं) १२९५ है ये ४थन तो અસંભવિત કલ્પના કરવા જેવું ગણાય (પાંચમાં ગુણસ્થાને પહોંચેલા શ્રાવકને જ સંયતા- સંયત કહી શકાય છે–દેવોમાં તો ચોથા ગુણસ્થાનથી આગળ જવાની યોગ્યતા નથી તેને આ પ્રકારના શબ્દ પ્રયોગને અસત્ય કલાના वो ह्यो छे)
प्रश्न--(से कि खाइ णं भंते ! देवा इति वत्तव्व सिया ? ) 3 महन्त ! જે દેવોને સંયત કહી શકાય નહીં, અસંયત કહી શકાય નહીં, સંયતા સંયત કહી શકાય નહીં, તે તેમને કેવા કહી શકાય ? (દેવો સંયત હોતા નથી,” એવું પ્રકટ કરવાને માટે બીજા ક્યા શબ્દ પ્રયોગ કરી શકાય ?)
उत्त२-" गोयमा ! " ३ गौतम ( देवाणं नो संजया इति वक्तव्य सिया?)
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪