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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ० ४ सू०५ शिष्यद्वयस्वरूपनिरूपणम् २६१ अन्तःकरणेनैव, इमानि वक्ष्यमाणानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि प्रश्नार्थान् पृच्छावः पृष्टवन्तौ, किं पृष्टवन्तौ ? इत्याह-'कइणं भंते ! देवाणुपियाणं अंतेवासि सयाई सिज्झिहिति जाव-अंतं करिहिति?' हे भदन्त ! देवानुप्रियाणां भवतां कति कियन्ति खलु अन्तेवासिशतानि सेत्स्यन्ति ? सिद्धिं गमिष्यन्ति ? यावत्-अन्तं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति ? 'तएणं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे' ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः आवाभ्यां देवाभ्यां मनसा पृष्टः सन् 'अम्हे मणसा चेव, इमं एयारूपं वागरणं वागरेई आवां प्रति मनसैव इदम् एतद्रूपं वक्ष्यमाणस्वरूपं व्याकरणम् उत्तररूपं वाक्यं व्याकरोति-स्पष्टीकृतवान्-' एवं खलु देवाणुप्पिया! मम सत्त अंतेवासि सयाई, जाव-अंतं करोहिंति' भो देवानुप्रियो ! ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना की है उन्हें नमस्कार किया वंदित्ता नमंसित्ता' वंदना नमस्कार करके फिर हम लोगोंने 'मणसा चेव' अन्तःकरण द्वारा ही इमाई एयाख्वाई वागरणाई पुच्छामो' श्रमण भगवान् महावीर से इन प्रश्नों कि-' कइणं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासिसयाइं सिज्झिहिंति' हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के कितने सौ शिष्य सिद्धिपद को पावेंगे-'जाव अंतं करिहिंति ' यावत् समस्त दुःखों का नाश करेंगे? 'तएण समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे ' इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि हमारे मन के द्वारा पूछे गये हैं 'अम्हे ' हम दोनों के प्रति ‘मणसा चेव ' अन्तः करण से ही इमं एथारुवं वागरण वागरे इ' इस प्रकार से यह उत्तर दिया 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम अंतेवासिसयाई जाव अतं करेहिति' हे देवानुप्रियो ! मेरे सात शिष्य सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगेसकल “वदित्ता नम सित्ता” ag] नभ२४१२ ४रीने “मणसा चेव" म भनथी। “ इमाइ एयारूवाई वागरणाइ पुच्छामो " श्रम भगवान महावा२२ मा प्रभारी प्रश्न पूछये। डतो-" कइण भते ! देवाणुपियाण अतेवासिसयाई सिज्झिहिति जाव अंत करिहिंति " " 3 मत ! २५ पानुप्रियता सा से શિ સિદ્ધપદ પામશે અને સમસ્ત દુઃખોને નાશ કરશે ?” ___“तएण समणे भगवौं महाबीरे अम्हे हि मणसापुढे" सभा द्वारा मनथी। भने ते प्रश्नो पूच्या ता तेवा श्रम मावान महावीरे " अम्हे मणसा चेव" समन भनथी । " इमं एय रूवागरण वागरेइ” ! प्रमाणे वाम भाय.. " एव खलु देवाणुपिया ! मम सत्त अतेवासिसयाई जाव अंत करे हिति" ॐ देवानुप्रिय! भा॥ ७०० शिष्ये। सिद्ध थरी, मुद्ध यरी, भुत
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪