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________________ भगवतीको संति ' वन्दित्वा, नमस्यित्वा, मनसैव शुश्रूषमाणौ सेवमानौ नमस्यन्तौ अभिमुखौ सम्मुखौ यावत्-विनयेन पाञ्जलिपुटौ पर्युपासाते । तेणं कालेणं, तेणं समएणं' तस्मिन् काले, तस्मिन् समये 'समणस्य भगवओ महावीरस्य' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जेटे अतेवासी इंदभूई णामं अगगारे. जाध-अदूरसामंतेउ हूं जाणू जाव-विहरई' ज्येष्ठः अन्तेवासी शिष्यः इन्द्रभूतिनाम अनगारः यावत्-अदरसामन्ते नातिदूरे नातिसमीपे ऊच्चों जानुः ऊर्वोत्थापितजानुः सन् यावत्-विहरति तिष्ठति ध्यानावस्थासम्मन्नस्तिष्ठति-इत्यर्थः, यावत्करणात् - सर्ववर्णनं प्रयमशतकस्य प्रथमोद्देशकस्य सप्तमसूत्रानुसारं संग्राहयम् । मंति' श्रमण भगवान महावीर प्रभुके गुगों की अन्तःकरण से स्तुति की और उन्हें नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता' वंदना नमस्कार करने के बाद फिर वे दोनों ही देव मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंस माणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति' मन से ही सेवा और नमस्कार करते हुए भगवान् के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर बैठ गये और उनकी सेवा करने लगे । इसके बाद ' तेणं कालेणं तेणं समएण' उस काल और उस समय में 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमण भगवान् महावीर के ' जेट्टे अंतेवासी' प्रधान शिष्य 'इंदभूई णाम अणगारे' इन्द्रभूति नामके अनगार 'जाव अदूरसामंते उड़ जाणू जाव विहरह' यावत् उचित्त स्थान पर दोनों जानु ओंकों-घुटनों ऊँचे उठाये हुए यावत् ध्यानावस्था में बैठे हुएथे यहां यावत्पद से प्रथम शतक के प्रथमोद्देशक के सप्तमसूत्र अनुसार समस्त वर्णन ग्रहण किया गया है । नमसंति ) तभणे मत:४२६ ५४ अभए भवानना गुणगान गायां, तभी तमन १४९॥ भने नमः४२ ४या. (वंदित्ता नमंसित्ता ) ४ नम२४॥२ ४या पछी ( मणसा चेव सुस्तूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहाजाव पज्जुवासंति ) ते मन દેવે મનથી જ ભગવાનની સ્તુતિ કરતા, મનથી જ ભગવાનને વંદણા કરતા અને હાથ જોડીને ભગવાન મહાવીરની સમીપે બેસી ગયા અને તેમની સેવા २१॥ साया. त्या२मा शुभन्युते सू२ ५४८ ४२ छ-( तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते जे भने ते समये (समणस्स भगवओ महावीरस्म जेट्रे अंतेवासी इंदभूइ णाम अणगारे ) श्रम लगवान महावीरना भुण्य न्द्रभूति नामना मा२ "जाव अदूर सामते उड्ढं जाणू जाव विहरइ" भगवानथी गई ६२ ५५५ નહીં અને બહુ નજીક પણ નહીં તેવા ઉચિત સ્થાને, બને ઘૂંટણને ઊંચી રાખીને (SH भासने) ध्यानावस्थामा मे Sal. (मडी ' जाव' ( यावत्) ५४थी પહેલા શતકના સાતમાં સૂત્રમાં આવતું સમસ્ત વર્ણન ગ્રહણ કરવાનું છે.) શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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