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________________ २५२ भगवतीसूत्रे प्यन्ति यावत्-भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्थन्ति सर्वदुः खानां शारीरमानसानाम् अन्तं करिष्यन्ति ? ' तएणं समणे भगवं महावीरे ते हिंदेवेहि मणसा पुढे तेसि देवाणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ ' ततो देवद्वय प्रश्नानन्तरं खलु श्रवणो भगवान महावीरः ताभ्यां पूर्वोक्ताभ्यां देवाभ्याम् मनसा-अन्तःकरणेन पृष्टः सन् तयोः देवयोः प्रश्नस्य मनसैव-अन्त करणेनेव इदम् एतवपं वक्ष्यमाण स्वरूपं व्याकरण स्पष्टार्थप्रतिपादकमुत्तरं व्याकरोति-' एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासि सयाई सिज्झिहिति, जाव-अंतं करेहिति' भो देवानुप्रियो ! एवं खलु मम सप्त अन्तेवासिशतानिसप्त शतसंख्यकाः शिष्याः सेत्स्यन्ति सिद्धि उन देवों द्वारा मन से पूर्वोक्तरूप में पूछे गये है (तेसिं देवाणं मणसा इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ) उन देवों के प्रश्न का मन से ही इस प्रकार से यह स्पष्टार्थ प्रतिपादक उत्तर दिया। यहां शंका हो सकती है कि भगवान् के जब कोई इन्द्रिय नहीं होती है तब मन भी उनके नहीं होता है क्यों कि उनका ज्ञान इन्द्रियातीत होता है-तब यहां "मन से ही प्रभुने उत्तर दिया " ऐसा कैसे कहा गया है-सो इसका समाधान इस प्रकार से हैं कि मन प्रभु का आत्मरूप होता है-यद्यपि द्रव्यमन वहां है-फिर भी भावमन के अभाव में वह कार्यकारी नहीं होता है अतः भगवान् द्रव्य मन के पुद्गलों को लेकर उत्तर देते है ऐसा तात्पर्य यहां जानना चाहिये । प्रभु ने जो मन से उत्तर दिया-वही अब प्रकट किया जाता है-' एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंते वासि सयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति ' देवानुपियो देवो ! मेरे सात જ્યારે ભગવાન મહાવીરને ઉપરોક્ત પ્રશ્ન માનસિક રીતે પૂછાય, ત્યારે " तेसि देवाणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ " मडावीर प्रसुभे મનથી જ તેમના પ્રશ્નનું સમાધાન કરતે આ પ્રકારને ઉત્તર તેમને આપે. શંકા-ભગવાનને જે કંઈ ઈન્દ્રિય હોતી નથી, તે તેમને મન પણ હોય નહીં, કારણ કે તેમનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયાતીત હોય છે. તે અહીં શા માટે એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે “ ભગવાને મનથી જ તેમને ઉત્તર દીધો ? '' સમાધાન- મન પ્રભુના આત્મ રૂપે હોય છે. જો કે ત્યાં દ્રવ્યમનનું અસ્તિત્વ હોય છે પણ ભાવ મનને અભાવે તે કાર્યકારી હોતું નથી. તેથી ભગવાન દ્રવ્યમનનાં પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને ઉત્તર આપે છે, એવું આ વિષયમાં સમજવું. प्रभुमे रे भनथी उत्तर दीघा ते ये ४८ ४२वामा माछ-" एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासिसयाई सिज्झिहिति, जाव अंतं करेहिति" श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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