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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ० ४ सू० ४ अतिमुक्तकस्वरूपनिरूपणम् २३७ उपचरत, 'अगिलाए भत्तेणं, विणएणं वेयावडियं करेह' अग्लानतया भक्तेन, पानेन, विनयेन, अस्य वैयावृत्त्यं = सेवां कुरुत, यतोहि 'अइमुते णं कुमारसमणे अंतकरे चैत्र, अंतिम सरीरिए चेव' अतिमुक्तः खलु कुमारश्रमणः अन्तकरचैव भवच्छेदवरचैव भवच्छेदश्च दूरतर भवेऽपि संभवति अत आह-अन्तिम शरीरिकश्चैव, चरमशरीर धारी खलु स वर्तते इत्यर्थः ' तरणं ते थेरा भगवंतो समणे णं भगवया महावीरेणं एवंवृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति, नमसंति' ततो भगवद्वाक्यश्रवणानन्तरं खलु ते स्थविरा भगवन्तः श्रमणेन भगवता महावीरेण एवम् उक्तरीत्या करो, (अगिला भत्तणं पाणेणं विणएणं वेद्यावडियं करेह) तथा अ च्छी तरह से श्रद्धापूर्वक आहार, पानी से एवं विनय भाव से तुमलोग उनकी वैयावृत्ति करो। क्यों कि - ( अहमुत्ते णं कुमारसमणे अंतकरे चेव अतिमसरीरिए चेव ) ये अतिमुक्त कुमार श्रमण अपने भव के छेदक हैं और चरमशरीर के धारक हैं। यहां ये जो ( भवच्छेद) और ( अंतिमसरीरिए) ये दो विशेषण दिये सो इनके देने का तात्पर्य यह है कि इन्हों ने जो यह वर्तमान पर्याय का शरीर धारण कर रखा है उसके छोडने के बाद फिर अनादि सम्बन्ध वाले तैजस और कार्मण शरीर की प्राप्ति इन्हें नहीं होगी। जो अन्तिम शरीरी होता है वह तो नियम से भवच्छेदक होता ही है परन्तु जो भवच्छेदक होता वह अन्तिमशरीरी होता भी है और नहीं भी होता है। यही बात ( दूरतर भवेऽपि संभवति) पद द्वारा व्यक्त की गई है। (तएणं ते थेरा भगवंतो समणेण भगवया महावीरेणं एवं बुत्ता समाणा समणं भगवं महावीर वंद ति नर्मसति ) भगवान् महावीर ने जब इस प्रकार से उन स्थविर ચૈાગ્ય તેની સેવા કરવી જોઇએ. अगिलाए भत्तेणं पाणेण विणएण वेयावडियं करेह ” प्रसन्नताथी आडार, चाली लावी आधीने तथा विनय लावथी तभारे तेनी वैयावंय (सेवा) १२वी लेखे. हार है " अइमुत्तेण कुमारसमणे अतकरे चेव अ ंतिमसरीरिए चेव " मा मासश्रम अतिमुक्तः तेना लवनु' छेडन કરનારા છે. અને આ તેને અતિમ ભવ છે. કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે વર્તમાન મનુષ્ય પર્યાયનું જે શરીર તેમણે ધારણ કર્યુ છે, તે છેાડયા પછી અનાદિ સધવાળા તૈજસ અને કાણુ શરીરની પ્રાપ્તિ તેમને થવાની નથી. જે અન્તિમ શરીર હાય છે તે નિયમથી જ ભવચ્છેદક હેાય છે, પણ જે ભવચ્છેદક હાય છે તે અન્તિમ શરીર હાય પણ ખરૂં' અને ન પણ હોય. એજ वात " दूरतरभवेऽपि संभवति ' पहद्वारा व्यस्त था छे. "तरण' ते थेरा समणेण भगवया महावीरेण एवं वृत्ता समाणा समण भगव महावीर वंदति नमसंति "
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श्री भगवती सूत्र : ४
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