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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ५ उ०४ सू० ४ अतिमुक्तस्वरूपनिरूपणम् २२७ मम नाविक इव नावम् अयं प्रतिग्रहकम् उदके कृत्वा, प्रवाहयन्, प्रवाहयन् अभि रमते तं च स्थविराः अद्राक्षुः, यौव श्रमणो भगवान महावीरस्तव उपागच्छन्ति, उपागम्य एवमवादिषुः-एवं खलु देवानुपियाणाम् अन्तेवासी अतिमुक्तो नाम कुमारश्रमणः, स भदन्त ? अतिमुक्तः कुमारश्रमणः कतिभिः भवग्रहणैः सेत्स्यति, यावत्-अन्तं करिष्यति ? आर्याः ! इति श्रमणो भगवान् महावीरस्तान् स्थविरान् बांधी। (बंधित्ता णाविया मे, णाविया मे नविओ विव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि कटूटु पव्वहमाणे अभिरमइ) बांधकर फिर उन्होंने यह मेरी नौका है, यह मेरी नौका है इस प्रकार नाविक की तरह अपने पात्र को नौका के जैसा मान कर पानी में तैराना प्रारंभ किया। इस तरह अपने पात्र को घार २ जल में तैराते हुए वे वहां पर खेलने लगे। (तंच थेरो अदक्खु जेणेव समणे भगवं महवीरे तेणेव उवागच्छंति ) पानी में पात्र को नौका की तरह तैरते हुए उन कुमार श्रमण अतिमुतक को स्थविरों ने देखा देखकर फिर वे जहां पर श्रमण भगवान महावीर थे वहां पर आये। (उवागच्छित्ता एवं वयासी ) वहां जाकर उन्हों ने उनसे ऐसा कहा-पूछा-(एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे, से णं भंते ! अइमुक्ते कुमारसमणे काहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ) हे देवानुप्रिय ? भगवान् अतिमुक्त कुमार श्रमण नामके जो आपके अन्तेवासी हैं, सो हे भद. न्त ! वे अतिमुक्त कुमारश्रमण कितने भवों को करके सिद्ध होंगे यावत् तेभर तेना माडी भाटीनी या माधी. ( बधित्ता णाविया में, णाविया मे नाविओ विव णावमय पडिग्गहगं उदगंसि कदु पव्वाहमाणे फवाहमाणे अभिरमइ) પાળ બાંધીને પાણીમાં તેમનું પાત્ર મૂકયું અને “આ મારી નાવડી છે” એમ કહેતાં નાવિકની જેમ પિતાની પાત્રને નાવડી જેવું માનીને પાણીમાં त।११। भाउजु. 240 रीत पाताना पात्रने (तं च थेरा अदम्खु जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छंति ) मा शते पाणीमा पोताना पात्रने तराता તે અતિમુક્તક બાળમુનિને સ્થવિરાએ જયા તેઓ જ્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાपी२ विशता तi त्यां माव्या. ( उवागच्छित्ता एब चयासी ) त्यां न तभरी महावीर प्रभुने मा प्रमाणे प्रश्न पूछये:- ( एवं खलु देवाणुपियाण अंतेवासी अहमुत्ते णाम कुमारसमणे, से णं भंते ! अइमुत्ते कुमारसमणे काहि भवग्गवणेहिं सिज्झिहिह जाव अंत करेहिह) वानु प्रिय ! मतिभुत नामना જે બાળમુનિ આપના શિષ્ય છે, તે હે ભદન્ત! કેટલા ભ કરીને સિદ્ધ પદ્ધ પામશે અને સમસ્ત દુઃખના અન્તકર્તા થશે ? श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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