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________________ प्रचन्द्रिका टीका श०५ ४० ४ सू० २ केवलीदासादिनिरूपणम् २०७ ?' यावत् नो खलु तथा केवली हसेद् वा, उत्सुकायेत वा ? इत्युच्यते याबस्करणात् - ' यथा खलु छद्मस्थो मनुष्यः हसेद् वा, उत्सुकायेत वा ' इति संत्रासम् | भगवान् तत्र कारणं प्रतिपादयति- ' गोयमा ! जं णं जीवा चरितमोहणिजस्स कम्मस्स उदरणं हसंति वा, उस्सुयायंति वा ' हे गौतम! यत् - यस्मात्कारणात् खलु जीवाः संसारिणः चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः उदयेन हसन्ति वा, उत्सुकायन्ते वा, सेणं केवलिस्स नत्थि ' तत् खलु चारित्रमोहनीयं कर्म केवलिनः = केवलज्ञानिनो नास्ति 'से तेणद्वेणं जाव नो णं तहा केवली हसेज्ज वा, ( से केणटुणं भंते ! जाव नो णं तहा केवली हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज वा ) हें भदन्त ! इसमें क्या कारण है कि केवलज्ञानी न हँसते हैं और उत्कंठावाले होते हैं। इसके समाधान निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं कि ' गोयमा ' हे गौतम ! ( जं णं जीवा चरितमोहणिज्जस्स कम्मरस उदपणे हसति वा उस्यायंति वा ) यह बात तुम निश्चित समझो कि जीव जो हँसते हैं और उत्कंठायुक्त होते हैं उन सब के चारित्रमोहनीय कर्म का उदय है | चारित्रमोहनीय कर्म की ही एक प्रकृति ' हास्य ' है । इस प्रकृति के उदय में ही ऐसा होता है । केवली भगवान् के यह चारिमोहनीय कर्म उदय में नहीं है, क्यों कि वह उनके कभी का नाश हो गया होता है । बाद में ज्ञानावरणीय आदि कर्म नष्ट होते हैं । अतः ( से णं केवलिस्स नत्थि ) केवली भगवान् में चारित्रमोहनीय कर्म नहीं होने से वे हँसते नहीं हैं और उत्कंठा वाले भी नहीं होते हैं । ( से तेण प्रश्न - ( से केणट्टेणं अंते ! जाव नो बा १ ) डे लहन्त ! साथ शा र मेवं હસતા પણ નથી અને ઉત્કંઠિત પણ હાતા નથી. गौतम स्वाभीना प्रश्ननुं समाधान उश्ता महावीर प्रभु डे ! ( गोयमा ! जं णं जीवा चरितमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदरणं हसंति वा उस्सुयायंति वा ) ३ ગૌતમ ! તું એ વાતને ખરાખર સમજી લે કે હસતા અથવા તે ઉત્સુકતાવાળા જીવેાના ચારિત્ર માહનીય કર્મોના ઉદય હાય છે. ચારિત્રમેાહનીય કર્મીની જ એક પ્રકૃતિ હાસ્ય છે, તે પ્રકૃતિના ઉયમાં જ એવું બને છે. કેવલી ભગવાનનું તે ચારિત્રમેહનીયક ઉદ્દયમાં નથી, કારણ કે તેને તેા કયારનાય સદંતર નાશ થઇ ગયા હૈાય છે. ત્યાર બાદ જ્ઞાનાવરણીય આદિ કમને ક્ષય થાય છે. ते ( से णं के लिस्स नत्थि ) ठेवली भगवानना थारित्रमोहनीय भना ક્ષય થઈ ગયા હેાવાથી તેએ હસતા પણુ નથી અને કઈ વસ્તુને માટે तहा केवली हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज । छठेवणज्ञानी लगवान श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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