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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ० ३ सू० २ नैरयिकाद्यायुष्कनिरूपणम् १६९ याउयं वा भेदो सव्वो भाणियवो मणुस्साउयं दुविहं देवाउयं चउव्विहं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सू० २ ॥
॥ पंचमसए तइओ उद्देसो ॥ ५-३ ॥ छाया-जीवः खलु भदन्त ! यो भव्यो नैरयिकेषु उपपत्तुं स खलु कि सायुष्का संक्रामति ? निरायुष्कः संक्रामति ? गौतम ! सायुष्कः संक्रामति, नो निरायुष्कः संक्रामति । तत् खलु भदन्त ! आयुष्कं कुत्र कृतम् , कुत्र समाचीर्णम् ? गौतम ! पूर्वस्मिन् भरे कृतम् , पूर्वस्मिन् भवे समाचीर्णम् । एवं यावत्-वैमानि.
नैरयिक आयष्क वक्तव्यता
'जीवे णं भंते' इत्यादि । सूत्रार्थ-(जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए ) हे भदन्त ! जो जीव नरक में उत्पन्न होने के योग्य होता हैं ( से णं किं साउए संकमइ ? निराउए संकमइ ? ) वह जीव यहीं से आयुष्क सहित होकर वहां उत्पन्न होता है ? या आयुष्य रहित होकर वहां उत्पन्न होता है ? (गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ ) हे गौतम ! आयुप्य सहित होकर ही वहां जीव उत्पन्न होता है, आयुष्य रहित होकर वहां उत्पन्न नहीं होता । ( से णं भंते ! आउए कहिं कडे, कहिं समाइण्णे) हे भदन्त ! उस जीव ने वहां-नरक में उत्पन्न होने योग्य आयुका कहां पर बंधकिया-तथा उस आयु को बंध करने के आचरण उसने कहां पर किये ? (गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे ) हे
नाछीना मायुष्यनी १४तव्यता(जीवेण भंते ) त्यादि सूत्राय -( जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइएसु उबवज्जित्तए ) 3 महन्त ! २ 04 न२४भा उत्पन्न यवाने योग्य डाय छ (से णं कि साउए संकमा? निराउए संकमइ ?) ते ४१ माथी १२आयुनो ५५ मांधीने त्या उत्पन्न थाय छ ? अथवा तो न२॥युन। ५५ मध्याविना त्यi (पन्न थाय छ ? (गोयमा ! साउये संकमइ, नो निराउये संकमइ ) हे गौतम ! न२४।युन। म मधीन र त्यां नय छे. न२४ायुने। मध माध्य. विना व त्या उत्पन्न थत। नयी. (से णं भंते ! आउए कहि कडे, कहि समाइण्णे ? ) 3 महन्त ! ते वे नमा ઉત્પન્ન થવા ગ્ય આયુને બંધ કયાં બાંધે, અને તે આયુબંધ બાંધવા योग्य माय२५ तेथे ४५i यु ? ( गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे
भ २२
श्री. भगवती सूत्र:४