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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०५ उ० ३ सू०१ अन्यतीर्थिक मिथ्याज्ञाननिरूपणम् १५३ यत्र तदन्योन्यभारिकं तद्भावस्तता तया, एवं चोक्तार्थद्वयस्यैव संयोजनया प्रत्येकं तयोः प्रकर्षं प्रतिपादयन्नाह - 'अन्नमन्न गरुयसंभारियत्ताए ' अन्योन्यगुरुकसंभारिकतया, अन्योन्येन गुरुकं च तत् संभारिकं चेति तथा तद्भावस्तत्ता तया एवम् " अम्नमम्नघडत्ताए ' अन्योन्यघटतया, अन्योन्यं घटसमुदायरचना यत्र तद्न्योन्यघटं तदभावस्तत्ता तया 'चिह्न' तिष्ठति=आस्ते । एतावत्पर्यन्तं दृष्टान्तः, अथ तं दार्शन्तिके योजयति- 'एवामेव ' एवमेव अनेनैवोक्त जालग्रन्थिकान्यायेन एकस्मिन्नपि जाले परस्परपृथक्संबद्धानेकग्रंथिवत् ' बहुणं जीवाणं ' बहूनां जीवानाम् सम्बन्धोनि ' आयुष्कसहस्राणि ' इत्यग्रेणान्वयः, 'बहुसु आजार सहस्सेसु बहुषु अनेकेषु प्रतिजीवं क्रमतः प्रवृत्तेषु आजातिसहस्रेषु देवादिजन्मपत्रेषु अधिकरणरूपेषु आधेयतया वर्तमानानि ' बहूई आउयसहस्साई ' 1 उन लगी हुईं गाठों में बट जाता है अतः समान भार वाली वह जालग्रन्थिका हो जाती है इस तरह विस्तार वाली और समान भार वाली वह जालग्रन्थिका 'अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठह' आपस में एक समुदायरूप पदार्थ बन जाती है । उसमें जितनी भी चीजें गांठ वगैरह आदि हैं वे परस्पर में असहयोग भाव से नहीं रहती हैं प्रत्युत सहयोग भाव से ही रहती हैं- इस कारण वह जालग्रन्थिका एक समुदायरूप पदार्थ बन जाती है। यहां तक तो सूत्रकार ने दृष्टान्त का स्पष्टीकरण किया है अब वे इस दृष्टान्त को दाष्टन्ति में घटित करते हैं- ' एवामेव ' इसी तरह से कहे हुए जालग्रन्थिकारूप दृष्टान्त के अनुसार- एक ही जाल में परस्पर पृथक् २ रूप से संबद्ध अनेक गांठों की तरह 'बहूणं जीवाणं' अनेक जीवों संबंधी 'बहूई आउयसहरसाई ' अनेक हजारों વહેચાઈ જાય છે. આ રીતે સમાન ભાર વાળી તે જાળગ્રન્થિકા મની જાય छे. आ शेते विस्तारवाजी अने समानलार वाजी ते लग्रथि। ( अम्नमन्न घडत्ता ए चिठ्ठइ ) अन्योन्य मे समुदाय ३५ पहार्थ मनी लय छे पेसा भेटली गांड આદિચીજો હાયછે, તે પરસ્પર સહયાગ ભાવથી રહે છે અસહયાગ ભાવથી રહેતી નથી. તે કારણે તે જાળગ્રન્થિકા એક સમુદૃાયરૂપ પદાર્થ અની જાય છે. અહી સુધી તે સૂત્રકારે દૃષ્ટાંતનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું" છે. હવે સૂત્રકાર તે દૃષ્ટાન્તને જીવના અનેક ભવા સાથે ઘટાવવાને માટે નીચે પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરે छे - ( एवमेत्र) लसग्रन्थिमना दृष्टान्त अनुसार - मे लगनां परस्पर अलग माग रीते संद्ध अनेड गांहोनी भेम, ( बहूणं जीवाणं) मनेऽ જીવાના श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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