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________________ १५६ भगवतीसूत्रे माधन्तयोरेव विधानात् , तदेव विशदीकर्तुमाह- अणन्तरगठिया' अनन्तरग्रथिता अनन्तरेण प्रथमग्रन्थीनामव्यवहितेन रचितैः ग्रन्थिभिः सह ग्रथिता अनन्तर ग्रथिता, एवं परंपरागठिया' परम्परग्रथिता परम्परैः अव्यवहितैर्ग्रन्थिभिः सह प्रथिता परम्परग्रथिता, उक्तफलितामाह-' अन्नमनगढिया' इति, अन्योन्यग्रथिता, अन्योन्येन परस्परेण एकेन ग्रन्थिना सह अन्यो द्वितीयो ग्रन्थिः, अन्येन च सह अन्यः,इत्येवंरूपेण ग्रथिता अन्योन्यग्रथिता भवति, तथा च 'अन्नमनगख्यत्ताए' अन्योन्यगुरुकतया, अन्योन्येन ग्रन्थनात् गुरुकता-विस्तीर्णता अन्योन्यगुरुकता. तया, तथा ' अन्नमन्त्रभारियत्ताए' अन्योन्यभारिकतया, अन्योन्यस्य भारो विद्यते 'अणंतरगढिया ' जो जालग्रन्थिका सबसे पहिले गूंथी हुई गांठों के पास रही हुई गांठों के साथ गूंथी गई है तथा जो जालग्रन्थिका बीच बीच की गांठों के साथ २ गूंथी हुई होती है वह परम्पर ग्रथित जालग्रन्थिका कहलाती है । इसमें यह नियत नहीं होता है कि वह क्रमवार एक के बाद एक गांठ से गूंथी जावे इसमें अक्रम से गांठें लगाई जाती हैं। इस तरह ' अन्नमन गढिया ' एक गांठ के साथ दूसरी गांठ और दूसरी गांठ के साथ तीसरी गांठ और तीसरी गांठ के साथ चौथी आदि गांठे जिसमें लगाई गई हों ऐसी वह जालग्रन्थिका हो ' अन्नमन्न गरुयत्ताए' इस तरह की गांठों से गंथी होकर वह जब मछलियों को पकड़ने के लिये जलाशय आदि स्थान में डालो जाती है तब वह विस्तृत हो जाती है फैल जाती है ' अन्नमन्नभारियत्ताए' और वह बीच में टूटती नहीं है क्यों कि एक दूसरी गांठ का भार आपस में सपी अन्थिानु सही दृष्टान्त माथ्यु छः) (अण'तरगढिया ) भां પરમ્પર ગ્રથિત ગાંઠે હોય, ( જે જાળગ્રન્શિકા સૌથી પહેલાં ગુંથેલી ગાની સાથે પાસેની ગાંઠેથી ગંઠાયેલી છે, અને પછી પાસેની ગાંઠે સાથે તેની પછીની ગાંઠ વડે ગાંઠાયેલી હોય, એવી જાળને પરસ્પરથિત જાળ કહે છે) ( अन्नमन्नगढिया ) 3 isी साथे मी मांड, भने मीनी साथे ત્રીજી ગાંઠ, અને ત્રીજી ગાંઠની સાથે ચેથી ગાંઠ એવી રીતે પરસ્પર જેમાં गठिानी थी य, ( अन्नमन्तगरूयत्ताए) 21 शतनी ist 43 गुथायी તે જળરાન્શિકાને જ્યારે જળાશયમાં નાખવામાં આવે છે ત્યારે તે વિસ્તૃત थ जय छ-३15 Mय छ, ( अन्नमन्मभारियत्ताए ) ते on मा cirl ભારથી તૂટી જતી નથી કારણકે બધું વજન એક બીજી સાથે ગંઠાયેલી ગાંઠે श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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