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________________ १९२ भगवतीसूत्रे गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः तच्चैवपरभवायुष्कं च येते एवम् आहुः तद् मिध्या, अहं पुनर्गतम ! एवम् आख्यामि यावत्- प्ररूपयामि- तद् यथानाम जाल ग्रन्थिका स्यात् यावत् अन्योन्यघटतपा तिष्ठति, एवमेव एकैकस्य जीवस्य बहु भिराजातिसहस्रैः बहूनि आयुष्क सहस्राणि आनुपूर्वीग्रपितानि यावत्-तिष्ठ न्ति, एकोऽपि च जीवः एकेन समयेन एकम् आयुष्कं प्रतिसंवेदयति, तद्यथा-इह करता है, उसी समय में परभव संबंधी आयु का भी अनुभव करता है। (जाव से कहमेयं भंते ! एवं ) तो क्या हे भदंत ! यह इसी प्रकार से है ? ( गोयमा ! ज णं ते अन्नउत्थिया तं चेव परभवियाउयं च ते एवमाहंसु तं मिच्छा ) हे गौतम ! उन अन्यतीर्थिकों ने जो पूर्वोक्तरूप से " परभव आयु का अनुभव करता है " यहाँ तक कहा है वह उन्हों ने मिथ्या कहा है । ( अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि ) मैं तो हे गौतम ! ऐसा कहता हूं (जाव परूवामि ) यावत् ऐसी प्ररूपणा करता हूं (जहा नामए जालगंठिया सिया) जैसे कोई एक जालग्रन्थिका हो (जाव अन्नमन्न घडताए चिट्ठति) और उसमें यावत् ग्रन्थियां अन्योन्य समुदायरूप से रहती हों ( एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजा. इसहस्से हिं, बहूहि आउयसहस्साइं आणुपुत्वि गढियाई जाव चिट्ठति ) इसी प्रकार से एक एक जीव के अनेक हजार भव अनेक हजार आयुकर्म क्रमशः उसके साथ गूंथे रहते हैं । ( एगे वि य णं जीवे एगेणं समाधी मायुन। ५५५ अनुस२ ४२ते! डाय छे. (जाव से कहमेय भंते ! एवं ) હે ભદન્ત ! તેમની તે માન્યતા શું સાચી છે?–શું એ પ્રમાણે જ બને છે? ( गोयमा ! ज णं ते अन्नउत्थिया त चेव परभवियाउयच जे ते एवमासुतं मिच्छा) उतम ! सन्यतीथिलीमे “त्यारे ५२४१ समधी मायुनी ५५ અનુભવ કરતે હોય છે” ત્યાં સુધીનું જે પૂર્વોક્ત કથન કહ્યું છે, તે મિથ્યા युं छे. ( अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवामि) गौतम ! दु तो मे छ', यावत् मेवी प्र३५। ४३ छ (जहा नामए जालगंठिया सिया) से जयन्थि४. डाय, (जाव अन्नमन्नघउत्ताए चिति) ते જાળગ્રંથિકાનું ઉપર્યુક્ત સમસ્ત વર્ણન “રસ્થિઓ અન્ય સમુદાયરૂપે રહેલી डाय,' त्यां सुधार्नु qg अड ४२. (एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजाइसहस्से हि आउयसहस्वाइ आणुपुरि गढियाई जाव चिट्ठति ) मे પ્રમાણે પ્રત્યેક જીવના અનેક હજાર ભવ અનેક હજાર આયુકમ સાથે ક્રમશઃ थाये॥ २९ छ. (एगे वि य ण जीवे एगेण समएण एग आउयं पडिसंवेदेइ) श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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