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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ० २ सू० ३ लवणसमुद्रनिरूपणम् १४७ नया) लवण समुद्रः जम्बूद्वीपं द्वीपं नो अवपीडयति नो उत्पीऽयति, नो चैव खलु एकोदकं करोति । इति । इत्यत आरभ्य-'अदुत्तरं च णं गोयमा' लोगट्टिई लोगाणुभावे ज णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उम्बीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ"। अथोत्तरं च खलु गौतम । लोकस्थितिः लोकानुभावः यत् खलु लवण समुद्रः जम्बूद्वीपं द्वीपं अबपीडयति नो उत्पीडयति नो चैव खलु एकोदकं करोति । इत्यन्तः सर्वोऽपि पाठः संग्राह्यः ।। सू. ३ इति श्री विश्वविख्यात-जगदवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त · जैनशास्त्राचार्य' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता श्री भगवतीमत्रस्य प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पश्चमशतकस्य द्वीतीयोद्देशकः समाप्तः ऐसे उनसब के प्रभाव से लवण समुद्र जम्बद्धीप नामके द्वीप को न तो डबा सकता है, न उसे किसी भी तरह की पीड़ा से व्यथित कर सकता है और न उसे जलमय कर सकता है। इस पाठ से लगाकर ' अदुत्तरंच गोयमा' आगे ऐसा भी समझाया गया है कि हे गौतम!'लोगट्टिई' लोक की स्थिति ही इस प्रकार की है जो लवण समुद्र जंबूद्वीप को न डुबा सकता है, न कष्ट पहुँचा सकता है और न जलमय ही बना सकता है क्यों कि ' लोगाणुभावे' लोक का ऐसा प्रभाव है । " जं न लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उव्वीलेइ, नो चेव णं एगोदगं करेइ 'अतः लवणसमुद्र जंबूद्वीप को न डुबा सकता है, न पीडित कर सकता है और न जलमय उसे बना सकता है । इस प्रकार यहांतक का पाठ सब ही यहां पर ग्रहण कर लेना चाहिये ।। सू०३॥ ॥पंचम शतक का द्वितीयोद्देशक संपूर्ण ॥ ભાવથી યુક્ત, જિતેન્દ્રિય, ભદ્ર અને નમ્ર હોય છે. એવાં અહત આદિના પ્રભાવથી લવણસમુદ્ર જંબુદ્વીપને ડુબાવી શકતું નથી, અથવા તે કઈ પણ પ્રકારના ઉત્પાત દ્વારા તેને પીડી શકતો નથી, અથવા તેને જળમય કરી શકો नथी. जी तनुं भी ४१२६५ २प्रमाणे मताव्युं छ- (अदुत्तरच गोयमा! ) लोगदिइ लोगाणुभावे ) गौतम! 4जी सोनी स्थिति मेवा प्रारनी છે કે લવણસમુદ્ર જબુદ્વીપને ડુબાવી શકતું નથી, વ્યથા પહોંચાડી શકતો નથી કે જળમય કરી શકતું નથી. કારણ કે લેકને એવે પ્રભાવ છે. તેથી (जं न लवणसमुद्दे जंबूदीव दीव नो उव्वीलइ नो चेवण एगोदगं करेइ) सवयસમુદ્ર જબૂદ્વીપને ડુબાવી શકતું નથી, પીડિત કરી શકતો નથી. આ પ્રમાણે અહીં સુધીને સમસ્ત પાઠ ગ્રહણ કર જોઈએ સૂ-૩ / પાંચમા શતકને બીજો ઉદ્દેશક સમાસ श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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