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________________ प्रमेयमन्द्रिका टी० ० ६ ० ५ सू० २ कृष्ण राजिस्व रूपनिरूपणम ६०९५ 6 एकai संख्यातयोजनसहस्रविस्तारां कृष्णराजिं व्यतिव्रजेत् व्यतिक्रामेत्, किन्तु अत्rasi auratणो वीईवएज्जा' अस्त्येककाम् असं ख्यातयोजन सहस्र विस्तारां कृष्णराजिं नो व्यतिव्रजेत् नो व्यतिक्रामेत् । तदुपसंहरन्नाह - ' एमडालियाओ णं गोयमा ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! महालयाः इयद्महत्यः खलु कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः । गौतमः पृच्छति - ' अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु गेहा इ वा, गेहावणा इ वा ? ' हे भदन्त ! अस्ति संभवति खलु कृष्णराजिषु गेहानि गृहाः इति वा भवन्ति ? गेहापणाः गृहहट्टाः इति भवन्ति ? भगवानाह - 'णो इणट्ठे समट्ठे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, कृष्णराजिषु गृहाः, गृहापणा वा न भवन्तीतिभावः । गौतमः पृच्छति' अस्थिणं भंते ! बीईवइज्जा) किसी एक कृष्णराजी तक पहुँच सकता है। अर्थात् संख्यात हजार योजन विस्तार वाली कृष्णराजी तक जा सकता है । किन्तु ( अत्येगइयं कण्हराई णो बीईवएज्जा ) असंख्यात हजार योजन विस्तार वाली कृष्णराजितक नहीं जा सकता है। ( एमहालियाओ णं गोमा कण्हराईओ पण्णत्ताओ ) इतनी महान् हे गौतम! ये कृष्णराजियां हैं। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि- ( अस्थि भंते ! कण्हराई हाइ वा, गेहावणाइ वा ) हे भदन्त ! क्या यह बात संभवित है कि इन कृष्णराजियों में घर हों और घर हाट हों ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि हे गौतम! ( णो इण्डे समट्ठे ) यह अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात् कृष्णराजियों में न घर संभावित हैं और न गृहापण ही संभावित है। ठीक है ये सब वहां पर नहीं हैं तो ( अस्थि णं भंते! સખ્યાત હજાર ચેાજનના વિસ્તારવાળી કૃષ્ણરાજિ સુધી તે જઈ શકે છે, परंतु (अत्थेगइयं कण्हराइ णो वीईवपज्जा ) असंख्यात भर योजनना विस्तारवाजी कृष्णगुरानि सुधी ते का रास्ती नथी. ( ए महालिया ओ णं गोयमा ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ ) हे गौतम! भेटसी अधी विस्तृत ( विशाण તે કૃષ્ણરાજિએ હાય છે. આટલા બધા વિસ્તારવાળી કૃષ્ણરાજિએમાં ઘર આદિ છે કે નહીં તે भगुवा भाटे गौतम स्वामी या प्रमाणे प्रश्न पूछे छे - ( अस्थि ण भंते ! कण्हराई हाइ वा, गेडावणाइ वा ? ) डे लडन्त ! शुं ष्णुरात्रियमां घर, હાટ આદિ હાવાનું અભવી શકે છે ખરું ? उत्तर- ( जो इणट्ठे समट्ठे ) हे गौतम ! भावात संभवित नथी એટલે કે ત્યાં ઘર પણ નથી અને હાટ પણ નથી. ગૌતમ સ્વામીના પ્રશ્ન-ઘર, હાટ દ્ઘિ ત્યાં સંભવિત ન હોય, તે श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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