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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.४ उ.१० सू.१ लेश्यापरिणामनिरूपणम् केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प ता रूवत्ताए, ता वण्णताए, ता गंधत्ताए, ता रसत्ताए, ता फासत्ताए भुजो मुजो परिणमइ ? गोयमा ! से जहानामए खीरे दृसिं पप्प, सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प, ता रूवत्ताए, ता वण्णत्ताए, ता गंधत्ताए, ता रसत्ताए, ता फासत्ताए भुज्जो मुज्जो परिणमइ, से एएणढेणं गोयमा ! एव वुच्चइ कण्हलेस्सा०' इत्यादि । तत् केनार्थेन भगवन ! एवम् उच्यते-कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य तद्रूपतया, तद्वर्णतया, तद्गन्धतया, तद्रसतया; तत्स्पर्शतया, भूयो भूयः परिणणति ? गौतम ! तद्यथा नाम क्षीरं दृषी (तक्रम् ) प्राप्य. शुद्धं वा वस्त्र द्रव्योको ग्रहण करके मरता है वह उसी लेश्यावाला होकर दूसरी जगह उत्पन्न होता है। यही बात 'तागंधत्ताए तारसत्ताए, ताफासत्ताए, भुज्जो भुज्जो परिणमंति' इत्यादि पदों द्वारा व्यक्तकी गई है। अब गौतम प्रभुसे पूछते हैं कि ' से केणटेणं भंते! एवं बुच्चा कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो मुज्जो परिणमई' हे भदन्त! आप ऐसा किस कारणसे कहते हैं कि कृष्णलेश्या नीललेश्याको प्राप्तकर उसके जैसे रूपमें, उसके जैसे वर्णमें, उसके जैसे गंधमें, उसके जैसे रसमें, उसके जैसे स्पर्शमें बार२, परिणत होती रहती है ? तब इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतमसे कहते हैं कि जैसे दूध तक को प्राप्त होकर उसके जैसे रूपमे परिणम जाता है, उसके जैसे वर्णमें परिणम जाता है, उसकी जैसी गंधवाला हो जाता है, उसके जैसे रसवाला हो जाता हैं, और उसके जैसा स्पर्शवाला हो जाता है, કરીને જીવ મરે છે, એ વેશ્યાના પરિણામવાળો થઈને તે જીવ બીજી જગ્યાએ ઉત્પન્ન थाय छे.' से वात ता गंधत्ताए, ता रस्सत्ताए, ता फासत्ताए भुज्जो भुजो परिणमंति'. त्या: ५ द्वारा ०५४त ४२वामा मावस छे.
गौतम स्वामी महावीर प्रभुने पूछे छ, “से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ कण्णलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुजो परिणमई' महन्त ! या५ । १२0 मे ४ छ। કે કૃષ્ણલેશ્યા નીલલેશ્યાને સંયોગ પામીને તેના જેવા રૂપમાં તેના જેવા વર્ણમાં, તેના જેવી ગંધમાં, તેના જેવા રસમાં અને તેના જેવા સ્પર્શમાં વારંવાર પરિણમતી રહે છે?
ઉત્તર- હે ગૌતમ! જેવી રીતે દૂધ સાથે છાશને સંયોગ થવાથી, દૂધ છાશ રૂપે પરિણમે છે, તેનાં રૂપ, વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ છાશના જેવાં જ બની જાય
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩