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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.३उ.१ धरणेन्द्र ऋद्धि विषये गौतमस्य प्रश्न: ७५ समाना एव सामानिकदेवादयो बोध्याः ‘एवं धरणे णं नागकुमारराया महिड्ढीए जाव-एवतियं जहा चमरे तहा धरणेऽवि" एवं धरणः खलु नागकुमारराजः महर्द्धिकः यावत् एतावच्च यथा चमरः तथा धरणोऽपि । किन्तु 'नवरं' एतावान् विशेषो यत्-'संखेज्जे' संख्येयान् 'दीवे' द्वीपान् 'समुद्दे' समुद्रान् वैक्रियसमुद्घातेन निर्मितरूपैः पूरयितु सामर्थ्य मिति सूचयन्नाह-'भाणिय वे' भणितव्यम् कथयितव्यम्-विज्ञेयमिति यावत् । एवं प्रकारेण चमरधरणेन्द्रवदन्येषामपि हरि-वेणुदेव - अग्निशिख-बेलम्ब-सुघोषजलकान्त-पूर्ण-अमितानां दाक्षिणात्यासुरकुमारेन्द्राणां, बलिभिन्नानाञ्चौदीच्यानां भूतानन्द-हरिसह-वेणुदारी-अग्निमाणव-वशिष्ट-जलप्रभ-अमितवाहनकरते हुए मूत्रकार कहते हैं 'एवं धरणेणं नागकुमारराया महिडीए जाव एवतियं जहा चमरे तहा धरणे वि' किन्तु चमरकी विकुर्वणामें और धरणेन्द्रकी विकुर्वणामें जो अन्तर है वह 'नवरं' इस प्रकारसे है यह बात इस पद द्वारा प्रकट की जा रही है- 'संखेज्जे दीवे समुद्दे भाणियव्वे' चमर अपनी विक्रिया शक्तिसे निष्पादित देवों एवं देवियों द्वारा पूरे जंबूद्वोपको और तिर्यग्लोकमें असंख्यातद्वीप समुद्रोंको भरनेकी क्षमतावाला है, तब कि यह धरणेन्द्र ऐसा नहीं है यह तो इतनी क्षमतावाला है कि तिर्यग्लोक संबंधी संख्यात द्वीपो और समुद्रौको भर सकता है। असंख्यातोंको नहीं। इसी प्रकारसे चमर धरणेन्द्रकी तरह हरि, वेणुदेव, अग्निशिख, वेलम्ब, सुघोष, जलकान्त, पूर्ण और अमित इन दक्षिणनिकायके असुरनिकाय इन्द्रोंको, तथा बलिभिन्न उत्तरनिकायके भूतानंद, हरिसह, वेणुदारी, अग्निमाणव, वशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष इन इन्द्रोंकी समृद्धि, एवं धरेणेणं नागकुभारराया महिड्डीए जाव एवतियं जहा चमरे तहा धरणे वि " मा रीते यम२ अने. घरी ऋद्धि माह तथा विद्यु'! ति स२भी छ 'नवरं' ५६ तेभनी qिg'! तिमी नीचे प्रमाणे तावत छ- संखेज्जे दीव समुद्दे भाणियन्वे" यभर तनी या तिथी Sपन्न ४२ वो भने वीमे। વડે સમસ્ત જંબુદ્વીપને તથા તિયàકના અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને ભરી દેવાનું સામર્થ્ય ધરાવે છે પણ ધરણેન્દ્ર તે તિયંગ્લેકના સંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્રોને ભરી શકવાને સમર્થ છે – અસંખ્યાત દ્વીપે અને સમુદ્રોને નહીં એ જ પ્રમાણે હરિ વેણુદેવ, અગ્નિ શિખવેલમ્મ, સુષ જયકાન્ત પૂર્ણ અને અમિત એ દક્ષિણનિકાયના ઇન્દ્રોની તથા ઉત્તરનિકાયના બલિ ભૂતાનંદ હરિસહ વેણુદારી અગ્નિમાણવ વશિષ્ટ જલપ્રભ અમિત श्री भगवती सूत्र : 3
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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