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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.३ उ.६२.१ मिथ्यादृष्टेरनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७३१ विपरीतज्ञानं भवति यत्-‘एवं खलु अहं 'एवं खलु अहम् 'वाणारसीए' वाराणस्यां 'नगरीए' नगर्यां 'समोहए' समवहतः 'समोहणित्ता' समवहत्य 'रायगिहे नयरे' राजगृहे नगरे स्थितः 'स्वाई' वाराणसीगतानि वैक्रियमनुष्यादिरूपाणि 'जाणामि, पासामि' जानामि, पश्यामि, इत्येवं 'से से दंसणे' तत् तस्य अनगारस्य दर्शने विवच्चासे' व्यत्यासो विपर्यासो भवति, अन्ते उपसंहरति-'से तेणटेणं' तत् तेनार्थेन वैपरीत्यज्ञानेन 'जाव-अण्णहाभावं ' यावत्-अन्यथाभावम् 'जाणइ, पासइ' जानाति, पश्यति, यावत्करणात्-'नो तथाभावं जानाति, पश्यति' इति संग्राह्यम् ? गौतमः पुनः विकुर्वणाप्रकारं पृच्छति-'अणगारेणं भंते !' इत्यादि। हे भदन्त ! अनगारः खलु 'भावियप्पा' भावितात्मा 'माई मिच्छदिट्ठी' मायी मनमें ऐसा विचार रहता है अर्थात् उसके मनमें ऐसा विपरीतज्ञान होता है कि-मैं 'वाणारसीए नयरीए' वाणारसी नगरी में समवहत हुआ हूं-अर्थात् वाणारसी नगरीकी मैंने विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके मै राजगृह नगरमें स्थित हुआ 'ख्वाई' वाणारसीगत वैक्रिय मनुष्यादिरूपोंको 'जाणामि पासामि' जानता देखता हूं 'से' इस प्रकारसे 'से' उसके 'दसणे' दर्शन-देखने में 'विवच्चासेभवई' विपर्यास होता है। 'से तेण?णं जाव अन्नहाभाव जाणइ पासइ' इस कारणसे हे गौतम मैंने ऐसा कहा है कि वह यावत् अन्यथाभावसे जानता है और देखता है यहां यावत्पद से 'नो तथाभावजानाति पश्यति' इस पाठका संग्रह हुआ है। अब गौतम पुनः विकुर्वणा के प्रकारको प्रभुसे पूछते है-'अणगारे णं भंते ! भावियप्पा माई मिच्छदिट्ठी' हे भदन्त ! मायी वियार में धाय छे-अथवा तना मनभा मे विपरीत ज्ञान थाय छे 'वाणारसीए नयरीए' पारसी नगरीमा ii मराड नगनी विg ७३ छ, भने विव' अरीने २४ न२भा मेi 'रूवाई' पाणुसीनां वैठिय मनुष्यादि ३पीने 'जाणामि पासामि' हुँ antell eg छु भने हेमा छु. 'से' 20 अरे 'से दंसणे' तेनi Nनमा [६मवाना रीतभा] विवच्चासे भवइ ' विपासाविपरीतता भावी जय छ. से तेणटेणं जाव अन्नहाभावं जाणइ पासह મેં એવું કહ્યું છે કે તે અણગાર બે રૂપને તથાભાવે જાણ–દેખતાં નથી, પણ અન્યથા. सावन-हेमे छे. હવે એક બીજી વિમુર્વણાના વિષયમાં ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છેप्रश्न-'अणगारेणं भंते ! भावियप्पा माई मिच्छादिट्ठी' 3 महन्त ! ४ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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