SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 636
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२२ भगवतीसत्रे गौतमः पुनः पृच्छति-'पभूणं भंते ! इत्यादि। हे भदन्त ! प्रभुः खलु समर्थः किम् 'वाउकाए वायुकायः 'एगं मह' एक महत् 'पडागासंठियं स्वं' पताकासंस्थितं रूपं पताकाकारमिव वर्तमान रूपं 'विउन्चित्ता' विकुर्वित्वा विकुर्वणां कृत्वा 'अणेगाइं जोयणाई गमित्तए' अनेकानि योजनानि गन्तुम ? प्रभुःसमर्थः किम् भगवानाह-'हंता, पभू' हन्त, प्रभुः समर्थः, हे गौतम ! विकुर्वणया पताकाकार रूप कृत्वा अनेकानि योजनानि गन्तुं समर्थः । गौतमःपुनः पृच्छति-से भंते ! किं' इत्यादि हे भगवन् ! स वायुकायः किम् , 'आयड्ढीए जब स्वयं पताका के जैसा है तब वह अपनी विक्रिया शक्ति से उसी आकारको पहिले के आकारकी अपेक्षा विशालरूप में बना लेता हैं। स्त्री पुरुष आदिके आकार के रूपमें वह अपने आपको नहीं बनाता है । अब इस पर गौतम पुनः प्रभु से पूछते हैं कि-'पभूणं भंते ! वाउकाए एगं मह पडागा संठियंरूवं विउन्वित्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए' हे भदन्त ! वायुकायिक जीव जब अपनी विकुर्वणा करनेकी शक्तिद्वारा एक विशाल आकारवाली पताकाके जैसे आकारको बना लेता है तो क्या वह इसी आकार से अनेक योजनों तक भी जा सकने में समर्थ हो सकता है। तब इस प्रश्नका उत्तर देते हुए प्रभु गौतमसे कहते है कि-'हंतापभू' हे गौतम ! वह इस विशालपताका के आकार में अनेक योजनों तक भी जा सकने में समर्थ है। अब गौतम प्रभुसे पुनः ऐसा पूछते हैं कि जब वह अनेक योजनों तक भी इस विशाल आकारसे जा सकने में समर्थ हैं तो वह हे भदन्त ! किं आयड्ढीए गच्छइ, परडूढीए गच्छई' क्या अपनी निजकी शक्तिसे अथवा તેથી તે પિતાની વૈકિય શકિતથી એજ આકારને પહેલાંના આકાર કરતાં વધારે વિશાળ બનાવી લે છે. તે પોતાને સ્ત્રી પુરુષ આદિના આકારરૂપે બનાવતો નથી. એજ વાતને मनुक्षीने गौतम स्वाभी 40 प्रश्न पूछे छ-'पभ्रणं भंते ! वाउकाए एगं महं पडागासंठियं रूवं विउवित्ता अणेगाइं जोयणाई गमित्तए? " महन्त ! पाताना વેકિય શકિતથી એક વિશાળ પતાકાના આકારનું રૂપ બનાવીને શું વાયુકાયજીવ અનેક योन ४) छ भ? त्यारे भडावा२ घंभु मा प्रमाणे पाप माथे-हता, पभ' गौतम ! वायुय ते विशा पतनी मारमा भने योजना અંતર સુધી જઈ શકવાને સમર્થ છે. હવે ગૌતમ સ્વામી નીચે પ્રશ્ન કરે છે-“જિં आयइढीए गच्छइ, परडूडीए गच्छा!' ने पायुधाय 4 (4m ताने मारे શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy