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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.३ सू. ४ एजनादि क्रियानिरूपणम् ५८१ सती तइअ समयनिजरिया' तृतीयसमयनिर्जरिता निर्जरा विषयीकृता क्षपिता इत्यर्थः, तथा च प्रथमसमये सातावेदनीय कर्मतापादनात् बद्धा, जीवप्रदेशैः स्पर्शनात् स्पृष्टा, द्वितीयसमये सातारूपेण अनुभूतत्वाद् वेदिता, वतीयसमये सर्वथा जीवप्रदेशेभ्यः परिशाटिता सती प्रक्षिप्ता क्षपिता भवति, ततश्च 'सेयकाले' एष्यत्कालेभविष्यत्काले चतुर्थादि समये 'अकम्मं वा वि भवई' अकर्मचापि भवति कर्माभावो भवति भगवान अन्ते क्रियोपसंहारेणाह-'से तेणटेणं' इत्यादि । तत् तेनार्थेन हेतुना 'मंडियपुत्ता' हे मण्डितपुत्र ! 'एवं बुच्चइ' एवमुक्तप्रकारेण उच्यते प्रतिपाद्यते 'जावं च णं' यावच्च खलु ‘से समय में सातावेदनीयरूप कमको उत्पन्न करती है इसलिये वह बद्ध तथा जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श करनेवाली होने से स्पृष्ट कही गई हैं 'वितियसमयवेड्या' द्वितीय समय में वह सातावेदनीयरूप से वेदित होती है. इसलिये उसे वेदित कहा गया हैं । 'तइयसमयनिजरिया' तृतीय समय में वह जीवप्रदेशों का सर्वथा साथ छोड देती हैं. इसलिये उसे निर्जीर्ण कहा गया है । पुनः वह उदूभूत नहीं होती इसलिये उसे क्षपित कहा गया है। इस तरह प्रथम समयमें बद्धस्पृष्ट हुई द्वितीय समयमें उदय में लाकर वेदित हुई
और तृतीय समयमें निर्जीर्ण हुई वह क्रिया हो जाती है । इसके घाद चतुर्थादि समयरूप भविष्यत् कालमें 'अकम्मं वावि भवई' नही क्रिया अकर्मरूप से परिणत हो जाती है-अर्थात् अन्तक्रिया (मुक्ति प्राप्ति) रूप बन जाती है। 'से तेण?णं मंडियपुत्ता! एवं वुचह, जावं २५ ४२नारी डापायी तन 'स्पृष्ट' ही छ. 'वितियसमयवेइया' भी समयमा तेनु सातावनीय३ वहन-मनुप थाय छ, तेथी तेन हित ४९ छ. 'तइय समय निजरिया' त्रीत समयाना ते मामशाना साथ तन छोडी है छ, ते २0 तेने નિજી કહેલ છે. ફરીથી તેને ઉદય થતું નથી તેથી તેને ક્ષપિત કહેલ છે. આ રીતે તે ક્રિયા (કર્મ) પહેલાં સમયમાં બદ્ધસ્પષ્ટ થાય છે, બીજા સમયમાં ઉદયમાં લાવીને તેનું વેદના થાય છે અને ત્રીજા સમયમાં તેની નિર્જરા થાય છે. ત્યાર બાદ ચતુર્થાદિ समय३५ भविष्यमा 'अकम्मं वावि भवई' छिया २५४३५ परिशुभी तय छे એટલે કે અન્તકિયા (મુકિતપ્રાપ્તિ) રૂપ બની જાય છે.
से तेणटेणं मंडियपुत्ता ! त्या ' हे भाडितपुत्र ! ते २0 में से છે કે જે તે જીવ એજન કંપન) આદિ ક્રિયા કરતું નથી. તે તે જીવ અન્તકાળે સકળ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩