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________________ ५६२ भगवतीसूत्रे यावत्-नो परिणमति, यावत्करणात् नो एजते, नो व्येजते इत्यादि तं तं भावं' इत्यन्तं संग्राह्यम् । तथा सति जीवस्य सकलकर्मक्षयरूपा अन्तक्रिया संभवति नवेति मण्डितपुनः पृच्छति-'जावं च णं भंते।' इत्यादि । हे भगवन् ! यावच्च खलु ‘से जीवे' स जीवः 'नो एयइ' नो एजते 'जाव-नो तं तं भावं परिणमति, यावत् करणात् सदा समितं नो व्येजते, नो चलति, नो स्पन्दते इत्यादि संग्राह्यम् 'तावं च णं' तावच खलु 'तस्स जीवस्स' तस्य एजनादि क्रियारहितस्य निष्क्रियस्य जीवस्य 'अंते' अन्ते 'अन्तकिरिया' अन्तक्रिया 'भवई' भवति ? किम् ? समझाते है कि 'हंता मंडियपुत्ता! जीवेणं सया समियं जाव नो परिणमइ' हां, मंडितपुत्र ! जीव कदाचित एजनादिक्रियाओं से रहित हो सकता है। अर्थात् जीव यदि सदा रागादिभावरूप से न परिणमे तो नियमतः उसे सकलकर्मक्षय रूप मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यहाँ यावत् पद से 'नो एजते, नो व्येजते' इत्यादि 'तं तं भावं' यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है। इसी बात को प्रभु से मंडितपुत्र पूछते हैं कि- 'जावं च णं भंते! से जीवे नो एयइ जाव-नो तं तं भावं परिणमइ, ताव च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवई' हे भदन्त ! जीव जबतक एजनादिक्रियाओं से रहित होता है यावत् वह उस२ भावरूप से परिणमित नहीं होता है तो क्या तबतक उस जीव की अन्त में सकलकर्मक्षयरूप मुक्ति हो सकती है। यहां यावत् पद से 'सदा समितं नो व्येजते. नो चलति, नो स्पन्दते, इत्यादि पूर्वोक्त पाठ ग्रहण किया गया है। इस प्रश्नका उत्तर देते उत्तर-'हंता मंडिपुत्ता' डा माहितधुन, ‘जीवे णं सयासमियं जव नो परिणमड ४या२४ मनायामाथी रहित मनी । छ मेरो रागद्वेष આદિ રહિત બની શકે છે. જો જીવ સદા રાગાદિભાવરૂપે ન પરિણમે તે તેને સકલ भना क्षय३५ भुजितनी प्राप्ति मवश्य थाय छे. मडी (जाव)' पहथी 'नो एजते, नो व्येजते' वगेरे लियापहोने तथा 'तं तं भावं'सुधीना ५४२ अ६ ४२वामा २०ये। छे. प्रश्न-'जावं च णं भंते ! से जीवे नो एजइ जाव-नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंतकिरिया भवइ " छे महन्त ! એજનાદિ ક્રિયાઓથી રહિત હોય છે–રાગાદિથી રહિત બને છે–(યાવત) તે તે ભાવરૂપે જે આત્મા પરિણમતે ન હોય તે શું જીવને અન્ત સમસ્ત કર્મોના ક્ષયરૂપ મુક્તિ प्रात थाय छ म ? सही यावत्' ५४थी 'सदा समितं नो व्येजते, नो चलति, नो स्पन्दते' त्या पूर्वरित पा8 अ ४२॥ो छ. २मा प्रश्न उत्तर मा५तi प्रभु श्री. भगवती सूत्र : 3
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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