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भगवतीसूत्रे हे भदन्त ! यावत्कालपर्यन्त खलु ‘से जीवे' स जीवः 'सया' सदा समियं जाव-परिणमइ' समितं यावत्-परिणमति, यावत् करणात् 'एजते इत्यारभ्य तं तं भावम्' इत्यन्तं संग्राह्यम्' 'तावं च णं' तावच्च खल्ल तावत्कालपर्यन्तम् 'तस्स जीवस्स' तस्य जीवस्य अंते अंत किरिया भवइ ?' अन्ते अन्तक्रिया भवति, अन्ते-मरणसमये अन्तक्रिया सकलकर्मक्षयरूपा भवति ? किम ? एजनादि क्रियायुक्तस्य जीवस्यान्तसमये मोक्षो भवति न वा इति प्रश्नः। भग. सदा किसी न किसी क्रिया का कर्ता है और कर्ता होने से वह उस २ भावरूप परिणमता रहता है यही बात व्यवहारनय बताता है । इस प्रकार प्रभुका प्रतिपादन सुनकर मंडितपुत्र प्रभुसे पुनःप्रश्न करते है 'जाव च णं भंते ? जीवे सया समियं जाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवई' हे भदंत हमने यह समझ लिया है कि जीव सदा एजनादिक क्रियाएँ करता रहता हैइससे इन क्रियाओं के करने से उसका क्या बिगाड हो सकता है? अन्त में ये सब क्रियाएँ उसकी छूट जावेंगी-और वह अक्रिय बनकर मुक्ति को प्राप्त कर लेगा यही बात इस सूत्रपाठ द्वारा वे प्रदर्शित कर रहे हैं कि-हे भदन्त ! जबतक यह जीव सदा रागद्वेष रूप में कंपता है यावत् उस २ भावरूप परिणमता रहता है, तब. तक क्या इसकी अन्त में-मरण समय में, अन्तक्रिया-सकलकर्मरूप मुक्ति हो जाती है क्या ? यहां पर भी यावत् पदसे 'व्येजते' आदिसमस्त क्रियापद ग्रहण किये गये हैं। तात्पर्य पूछने का यही है कि जीव एजनादिक क्रिया विशिष्ट जीवकी अन्त समय में मुक्ति होती કેઇ ક્રિયાનો કર્તા બનતે હોય છે, અને ક્રિયાને કર્યા હોવાને કારણે જીવ તે તે ભાવરૂપે પરિણમતે રહે છે, એજ વાત વ્યવહાર નય બતાવે છે. આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન सनी भलितपुत्र माग२ महावीर प्रभुने प्रमाणे पूछे छे-'जावं च णं भंते ! जीवे सया समियं जाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवम्स अंते किरिया भवइ ?? महन्त ! से वात तो ५२।०५२ सम015 3 29 सहा मैना ક્રિયાઓ કરતે રહે છે. આ ક્રિયાઓ કરવાથી તેનું શું બગડી જવાનું છે? અંતે તે તેની તે બધી ક્રિયાઓ બંધ પડી જશે, અને તે અક્રિય થઈને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરશે, એજ વાત આ સૂત્રદ્વારા તેઓ પ્રકટ કરે છે. હવે પ્રશ્નનનું તાત્પર્ય આપવામાં આવે છેહે ભદન્ત ! જ્યાં સુધી જીવ રાગદ્વેષથી યુક્ત રહે છે, (યાવતુ) ઉપર કહેલા તે તે ભાવરૂપે પરિણમતે રહે છે, ત્યાં સુધી અને (મરણકાળે) તે (અન્તક્રિયા)–સકલ કર્મના
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩