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________________ ५०४ भगवतिसूत्रे " 4 ध्यायथ यूयम् आर्त्तध्यानं कुरुथ, यावत्करणात् 'चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टाः ' इत्याद्युपर्युक्त सर्व संग्राह्यम्, 'तए णं से' ततः सामानिकदेव पृच्छानन्तर खलु सः 'चमरे असुरिंदे असुरराया' चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः 'ते सामाणिय परिसोववन्नए' तान् सामानिकपर्षदुपपन्नकान् 'देवे' देवान् 'एवं वयासी' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् एवं खलु देवाणुपिया' एवं वक्ष्यमाणं खलु कारणं मम शोकपरितापयोः, भो देवानुप्रियाः । यत् किल ' मए ' मया 'समणं भगवं' श्रमण भगवन्तं महावीरम् 'नीसाए' निश्रया 'सक्के देविंदे देवराया' शक्रोः देवेन्द्रो देवराजः 'सयमेव ' स्वयमेव एकाकिनैत्र 'अच्चासाइए' अत्याशातितः अत्याशातना विषयीकर्तुमिष्टतया उपद्रुतः 'तए णं तेणं परिकुविए णं समाणेणं' ततः खलु ममोपद्रवानन्तरं तेन शक्रेण परिकुपितेन अतिहै । 'किं णं देवाणुप्पिया हे देवानुप्रिय ! क्यों 'ओहयमणसंकप्पा' आप अपहृतमनः संकल्प होकर 'जाव' यावत् 'झियायह' आर्त्तध्यान कर रहे हैं ? यहां यावत्पद से चिंतासोयसागर संप्रविट्ठेः, इत्यादि पूर्वोक्त सब पद ग्रहण किये गये हैं । उनकी इस बात को सुनकर 'तरणं' बाद में 'से चमरे असुरिंदे असुरराया' उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने 'ते सामाणिय परिसोववन्नए देवे उन सामानिक परिषदा में उत्पन्न हुए देवों से 'एवं वयासी' इस प्रकार कहा ' एवं खलु देवाणुपिया' हे देवानुप्रियो ! मेरे शोक और परिताप का कारण यह है कि - 'सयमेव' अकेले ही 'मए' मैंने 'समणं भगवं महावीरं ' श्रमण भगवान महावीर का 'णीसाए' आसरा लेकर के ' देविंदे देवराय सक्के' देवेन्द्र देवराज शक्र को 'अच्चासाइए' उसकी शोभासे परिभ्रष्ट करने का दुःसाहस किया- ' तरणं परिकुविएणं समाणेणं ' 'किं णं देवाशुपिया ओहयमणस कप्पा जान झियायह' हे हेवानुप्रिय ! चिंता शा भाटे ४रे! छे! ? महीं 'यावत् ( जात्र ) ' पी 'चितासोयसागरसं पविठ्ठे ' इत्यादि सूत्रो श्रद्धणु ४२वामां आव्या छे, 'तरणं' सामानि हेवोनी ते वात सलिणीने 'से चमरे असुरिंदे असुरराया' असुरेन्द्र मसुरराज् यभरे तेभने ' एवं ' वयासी' आ प्रभाो ऽधु. – ‘एवं खलु देवाणुप्पिया !' हे हेवानुप्रियो ! भारा शोध्नु आरए म प्रमाणे छे - 'सयमेव मए समणं भगवं महावीरं णीसाए' में हाथे श्रमष्णु भगवान महावीरनो माश्रय बने 'देविंदे देवरायसक्के' देवेन्द्र देवशन राउने 'अच्चासाइए' अपमानित श्वानुं दुःसाहस यु 'तरणं परिकुविएणं समाणेणं' तेथी भारा पर अत्यंत उपायमान थाने 'ममं बहाए' भारो वध खाने भाटे ' 4 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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