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________________ भगवतीसूत्रे तुल्यं विकुर्षणाकर्तुम् समर्थोऽस्ति, तत्र दृष्टान्तमाह-"से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा" तद्यथा नाम युवति युवा हस्तेन हस्ते गृह्णीयात्-यथा कश्चिद् युवा युवति हस्तेन हस्ते गृहीत्वा परस्परसंसक्ताङ्गुलितया युक्त्या संलग्न इव प्रतिभाति, "चक्कस्स वा णाभी अरयाउत्ता-सिया" चक्रस्य वा नाभिःअरकायुक्ता स्यात-यथा वा चक्रस्य नाभिः अरकै साकं संसक्तापतिभाति 'एवमेव गोयमा ! एवमेव गौतम ! अनेनैव प्रकारेण हे गौतम ! " चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे वेउब्धियसमुग्घाएणं समोहण्णइ” चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य एकैकः सामानिको देवो वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते 'समोहणित्ता' समवहत्य 'जाव दोच्चंपि' यावत् द्वितीयवारमपि “वेउब्बियसमुग्घायेणं समोहण्णइ" चैक्रिय समुद्घातेन समवहन्यते “समोहणित्ता"समवहत्य 'पभूणं गोयमा! जहानामए' जैसे कोई युवा पुरुष अपने हाथ से युवतीका हाथ पकड़ लेता है तो उस समय वह परस्पर में सक्ताङ्गुलि होने के कारण उससे संलग्न जैसा प्रतीत होता है अथवा-चक्रकी नाभि अरक काष्ठोंसे संसक्त प्रतीत होती है 'एवामेव' इसी तरह 'गोयमा' हे गौतम ! 'चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो' उस असुरेन्द्र असुरराज चमरका 'एगमेगे सामाणियदेवे' एक एक सामानिक देव 'वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ' वैकियसमुद्धात द्वारा अपने आत्मप्रदेशोको बाहर निकालने और उन्हे पुनः संकुचित करनेकी शक्तिसे युक्त होता हैं । समुद्घात करके फिर वह द्वितीय रूप बनानेके लिये 'बेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ' वैक्रिय समुद्धातसे युक्त होता हैं अर्थात् दुबारा भी वैक्रिय समुद्घात करता है । 'समोहणित्ता' इस तरह समुद्घात करके वह सामानिक देव नयन दृष्टांत भयुछ-" से जहा नामए" त्यावी शते ४ युवान ४ યુવતીને હાથ પકડીને પોતાના બાહુપાશમાં ખેંચી લેવાને સમર્થ હોય છે, 2वी शते यनी नानि मारामान ५४ी २राभवाने समय हाय छ, “ एवामेव " मे प्रमाणे " गोयमा! " गौतम ! " चमरस्स अमुरिंदस्स असुररण्णो" मसुरेन्द्र मसु२२।०४ यभरने। " एगमेगे सामाणिय देवे” ४२४ साभानि १ " वेउश्चियसमुग्घाएणं समोहण्णइ" प्रिय सभुधात वा पोताना आत्मप्रशाने બહાર કાઢવાને અને ફરીથી તેને સંકુચિત કરવાની શકિત ધરાવતો હોય છે. એક વાર सभुधात ४शन थी मी २१३५ मनाववान भाट “ वेउब्बियसमुग्याएणं समोहण्णइ" ते शथी ५४ वैठिय समुधात ४२ छ. " समोहणित्ता" શ્રી ભગવતી સૂત્રઃ ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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