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भगवतीमुत्रे टीका-'तएणं' ततः खलु चमरस्य मम चरणशरणमाप्त्यनन्तरं 'तस्स सकस्स देविंदस्स देवरण्णो' तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'इमेयारूवे अज्झथिए' अयम् एतद्रूपः आध्यात्मिकः अधुनेवाग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपः अध्यास्मसम्बन्धी 'संकल्पः' विचारः यावत्पदसंग्राह्यतया प्रतीयमानः 'जाव-समुपजित्था' यावत्-समुदपद्यत, यावत्पदेन 'चिंतिए, पत्थिए, कप्पिए,मनोगए, संकप्पे' चिन्तितः, प्रार्थितः, कल्पितः, मनोगतः, संकल्पः-इति संग्राह्यम् । तत्र चमरस्य सौधर्मकल्पोत्पन्नसामर्थ्यमसंम्भाव्यं आश्चर्यचकितस्य शक्रस्य आध्यात्मिकः आत्मगतो विचारः अङ्कर इव किञ्चित समुत्पन्नः-स पुनः कीदृश इत्यत आह-चिन्तितः पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारो द्विपत्रितइव पूर्वापेक्षया
टीकार्थ-'तए णं से' जब चमरने मुझ महावीर के चरणों की शरण प्राप्त करली तब उसके बाद 'तस्स देविंदस्स देवरणो सक्कस्स' उस देवेन्द्र देवराज शक्र को 'इमेयाख्वे अज्झिथिए' यह इसरूप आध्यात्मिक संकल्प 'जाव समुपन्जित्था' यावत् उत्पन्न हुआ। यहां यावत्पद से संकल्प के ये 'चिंतिए, पत्थिए, कप्पिए, मनोगए चार विशेषण गृहीत हुए हैं । सौधर्मकल्पमें उत्पन्न हुए शक को चमरमें ऐसी शक्ति तो है नहीं ऐसा जानकर के फिर भी उसने मुझे शोभा से भ्रष्ट करने का विचार किया-इस प्रकार ख्यालकर आश्चर्य जब हुआ-तब उसको ऐसा विचार हुआ-यह विचार आध्यात्मिक इस लिये कहा गया है कि यह पहिले इन्द्र-शक्र की आत्मा में अङ्कुर की तरह किञ्चित् रूपमें उत्पन्न हुआ बाद में वही विचार द्विपत्रित अङ्कुर की तरह पहिले की अपेक्षा पुनः२ स्मरणरूप होने के कारण कुछ अधिक मात्रामें पुष्ट हुआ इसलिये उसे चिन्तित कहा गया है। बादमें वही विचार इच्छाद्वारा निर्णतुम् इष्ट हुआ-अतः पुष्पित हुए
At-'तएणं' यमरेन्द्रने भा२वा भाटे 40 छ।3। पछी 'तस्स देविंदस्स देवरण्णो सक्कस्स' वेन्द्र १२००८ शने 'इमेयारूवे अज्झथिए' मा प्रधान माध्यामि, यिन्तित, प्रार्थित, पनि भोगत 'जाव समुपन्जित्था' (क्यार ઉત્પન્ન થયે “ના પદથી બીજા જે પદો ગ્રહણ કરાયાં છે તેને અર્થ પણ ઉપરના વાકયમાં આપે છે. તે વિચાર પહેલાં તેના મનમાં અંકુરની જેમ ઉદુભ, તેથી તે વિચારને આધ્યાત્મિક કહ્યો છે. જેમ અંકુરમાંથી ફણગો ફૂટે તેમ તેના મનમાં તે વિચાર વારંવાર આવવા લાગે તેથી તેને ચિન્તિત કહ્યો છે. ત્યાર બાદ પુપિત થયેલા
श्री भगवती सूत्र : 3