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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ. २ ० ७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ४१९ यावत्पदेन शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा इत्यादि 'बंदर, नमसर, वंदिता ' इतिसंग्राह्यम्, महावीरम्मति चमरस्य निवेदनप्रकार माह- 'इच्छामि णं भंते !" इत्यादि । इच्छामि खलु भगवन् ! 'तुब्भं' त्वाम् 'नीसाए' निश्रया आधारेण 'सक' देविंद देवरायं' शक्रं देवेन्द्रं देवराजम् 'सयमेव अच्चासाइत्तए' स्वयमेव अत्याशातयितुम् अपमानयितुम् इच्छामीति पूर्वेणान्वयः 'चिकट्टु' इति कृत्वा एवं विचार्य अवधार्य 'उत्तरपुरत्थिमं' उत्तरपौरस्त्यं 'दिसीभागं' दिग्भागम् इशाणकोणम् 'अवक्कमे ' अपक्रामति गच्छति, अपक्रम्य गत्वा 'वेउच्त्रिसमुद्घाएणं' वैक्रियसमुद्घातेन 'समोहण' समवहन्ति वैक्रियसमुद्धातं करोति 'समोहणित्ता' समवहत्य च ' जाव - दोच्च पि' यावत् द्वितीयमपि वारम् ' वेउच्विअ प्रकार से कहने लगा- यहाँ यावत् पदसे 'शिरसावतं मस्तके अंजलिं कृत्वा वंदइ नगंसह वंदिता' इस पाठका ग्रहण किया गया है ! अब चमरने महावीर से क्या निवेदन किया सो सूत्रकार कहते कि 'इच्छामि णं भंते' इत्यादि उसने प्रभु से इस प्रकार कहा 'भंते' हे भदन्त ! 'तुब्भं नीसाए' आपके आधार से 'देविंदे देवरायं सक्कं' देवेन्द्र देवराज शक्र को 'सयमेव' मैं अकेला ही 'अच्चासाइत्तए' उसकी शोभा से भ्रष्ट करना 'इच्छामि' चाहता हूं ! अर्थात् विना किसी दूसरे की सहायता लिये मैं अकेला ही केवल आपका शरणा लेकर इन्द्रशक्र को अपमानित करना चाहता हूं ! 'त्तिकद्दु' इस प्रकार कहकर वह 'उत्तरपुरस्थि दिसी भागं अवक्कमइ' ईशान कोण की ओर वहां से गया और वहां जाकर उसने 'वेडब्बियसमुग्धाएणं वैक्रिय समुद्घात से अपनेको 'समोहणइ' समवहत किया-अर्थात् वहां जाकर उसने वैक्रिय समुद्घात किया । 'समोहणित्ता' वैक्रियसमुद्र
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मस्तके अंजलि कृत्वा वंदइ नमसइ, वंदित्ता ' म चाहना समावेश ४२वामां આન્યા છે. ચમરે મહાવીર પ્રભુ પાસે શુ નિવેદન કર્યુ તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે— 'इच्छामि णं भंते' हे अहन्त ! 'तुब्भं नीसाए' आपनी निश्राथी आपनो आश्रय सने देविदं देवराये सक्कं' देवेन्द्र देवराय ने 'सयमेव' हु' उसे हाथे ४ 'अच्चासाइत्तए' तेनी शोभाथी भ्रष्ट अरवानी-तेने परास्त श्वानी ४२छा रा छः કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મહાવીર પ્રભુને આશ્રય લઈને ખીજા કોઇની પણ મદદ વિના, તે એકલે જ શક્રેન્દ્રને અપમાનિત કરવાની ઇચ્છા રાખતા હતા. तिकडु २मा प्रभाशे॒ अडीने ते 'उत्तरपुरस्थिमं दिसी भागं अवकम' ४शान मां या गयो त्यां भने ' वेडव्वियसमुग्धारणं समोहण' तेथे वैप्रिय समुद्दधात
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩