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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ. १ सू० २१ तामलीकृतपादपोपगमनम् २१३ संततः धमनीव्याप्तः 'जाए' जातोऽस्मि 'तं' तत्तस्मात् कारणात् 'अस्थि जावमे उट्ठाणे' अस्ति यावत् मम उत्थानम् उत्थानशक्तिः चेष्टाविशेषः 'कम्मे' कर्म भ्रमणादिक्रिया 'बले' बलम् शरीरसामर्थ्यम् 'वीरिये' वीर्यम् आत्मबलम् 'पुरिसक्कारपरक्कमे' पुरुषकारपराक्रमः पौरुषाभिमानसामर्थ्यम् वीर्यान्तरायक्षय क्षयोपशमरा मुत्थजीवपरिणामविशेषरूपा उत्थानादयो बोध्याः तावतामेसेयं तावत् मम श्रेयः कल्याणावसरः विहर्तुमित्यग्रेणान्वयो बोध्यः, तदेवोपपादयति'कलं जाव जलंते' इत्यादि । कल्यं वोदिने यावत ज्वलति सूर्यः प्रकाशते प्रभातं भवति, यावत्पदेन राज्यवसान-प्रभातादि गम्यते; 'तामलित्तीए' ताम्रलिप्त्याः ‘नगरीए' नगर्याः ‘दिट्ठा भट्टेय' दृष्टाभाषितांश्च दृष्टान् इस कारण उनके सद्भाव में जो शारीरिक शिराएँ देखने में नहीं
आतीथीं वे अब एक एक करके गिनी जा सकती हैं। यही बात 'धमणिसंतए' इस पद द्वारा प्रदर्शित की गई है। 'तं' इसलिये 'अस्थि में जाव उहाणे' जबतक मुझ में स्वयं उठने की शक्ति है, 'कम्मे भ्रमण करने की शक्ति है, 'बले' शारीरिक सामर्थ्य है, 'वीरिये' आत्मबल है 'पुरिसकारपरक्कमे' पौरुषाभिमान सामर्थ्य हैं, ये सब उत्थानादिक वीर्यान्तराय कर्मके क्षय और क्षयोपशम से उत्पन्न होते है और जीव के परिणाम विशेषरूप माने गये हैं । 'तावता' तबतक 'मे सेयं' मेरा कल्याण इसी में है कि मैं 'कल्लं' आगामी दिवस 'जाव जलंते' जब कि सूर्य का उदय हो जाता है रात्रिका अवसान हो जाता है और प्रभात हो जाती है तब तामलित्तीए नयरीए' ताम्रलिप्त नगरी के पूर्व में 'दिट्ठा भट्टेय' हेमापा सा छे. भाई शरीर छान्यामाना भ RQ 2:) आयुछे. तो "अत्थिमे जावउदाणे" या सुधी भाराम ते ४ानी शठित छ, “कम्मे" ७२१॥ ३२१।मी त छ, 'बले' शारी२ि४ सामथ्य छ, 'वीरिये' मम छ, 'पुरिसक्कारपरक्कमे' पौरपालिमान समय छ, (उत्थान माEि F५२।४त तियानी उत्पत्ति पायर्यान्तराय मना क्षय आने क्षयोपशमया थाय छे) 'तावता' त्या सुधा 'मे सेयं' તેનો નીચે દર્શાવ્યા પ્રમાણે ઉપગ કરી લેવામાં જ મારૂં શ્રેય છે હવે તેમણે તે ઉત્થાનાદિ શકિતને શું ઉપયોગ કરી લેવાને સંકલ્પ કર્યો તે સૂત્રકાર બતાવે છે'कल्लं' पावती id 'जाव जलंते' l पूरी याने न्यारे प्रात: थशे-न्यारे सू४िय थशे त्यारे 'तामलिनीए नयरीए' तामlal नगरीमi ra. 'दिवा
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩