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४४ प्रमत्त और अप्रमत्त संयतोके स्वरूपका कथन ५८७-५९. ४५ लवण समुद्रके जल-उपचय और अपचय (घटबढ) होने में कारणका निरूपण
५९१-५९४ चौथा उद्दशा ४६ चतुर्थ उद्देशकका विषयनिरूपण
५९५-५९८ ४७ क्रियाके विचित्र प्रकारके ज्ञानविशेषका निरूपण ५९९-६१५ ४८ वैक्रियवायुकायके स्वरूपका निरूपण
६१६-६२५ ४९ परिणमिक-बलाहक मेघके स्वरूपका वर्णन
६२६-६३४ ५० जीवके परलोकगमनके स्वरूपका कथन
६३५-६४७ ५१ अनगारके विकुर्वणाके स्वरूपका निरूपण
६४८-६६६ पांचवा उद्देशा ५२ पांचवे उद्देशकका संक्षिप्त विषय कथन
६६७-६६८ ५३ विकुर्वणा विशेषवक्तव्यताका निरूपण
६६९-६९७ ५४ अभियोग्य और आभियोगिकके स्वरूपका वर्णन ६९८-७१४
छट्ठा उद्दशक ५५ छटे उद्देशकके विषयोका संक्षेपका कथन
७१५-७१६ ५६ मिथ्यादृष्टि अनगारके विशेष विकुर्वणाके स्वरूपका निरूपण ७१७-७३४ ५७ अमायि अनगारकी विकुर्वणा विशेषका वर्णन
७३५-७५३ ५८ चमरके आत्मरक्षक देवोंकी विशेषवक्तव्यता
७५४-७६० सातवां उशा ५९ सातवे उद्देशेका संक्षिप्तविषयविवरण
७६१-७६२ ६० शक्रके सोमादि लोकपालके स्वरूपका निरूपण ७६३-७९६ ६१ यमनामक लोकपालके स्वरूपका निरूपण
७९७-८१८ ६२ वरुणनामक लोकपालके स्वरूपका निरूपण
८१९-८३० ६३ वैश्रमण नामक लोकपालके स्वरूपका निरूपण ८३१-८५०
श्री भगवती सूत्र : 3