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प्रमेयचन्द्रिका टी० ०२ उ०८ सू०१ धमरेन्द्रस्य सुधर्मासमादिनिरूपणम् ९८५ वासपर्वतः तस्याऽऽदिमध्यान्तेषु विष्कभप्रमाणमिदम् “ कमसो विखंभोसे दसबावीसाइं जोयणसयाई सत्त्सए तेवी से चत्तारिस ए य चउवीसे" क्रमशोविष्कंभस्तस्य दशद्वाविंशतियोजनशतानि सप्तशतानि त्रयोविंशतिश्चत्वारिंशतानि च चतुर्विशतिरिति ॥ गोस्तुभोपपातपर्वतयोः प्रमाणे सर्वथा सादृश्यं निवारयमाह "नवर उवरिल्लं प्रमाणं मज्झे भाणियव्व " नवरसुपरितनं प्रमाणं मध्ये भणितव्यम् । गोस्तुभपर्वतस्य यत् उपरिभागे प्रमाणं तत् उपपातपर्वतस्य मध्ये ज्ञातव्यमित्यर्थः, ततश्चेदमुक्तं भवति ( मूले दशबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं ) मूले यह गौस्तुभपर्वत नागराजों का आवासपर्वत है यह लवणसमुद्र के बीच में पूर्व दिशा में है। इसके आदि भाग का, मध्यभाग का और अन्तिमभाग का विष्कंभ प्रमाण इस प्रकार से है (कमसो विक्खंभो से दसबावीसाई जोयणसयाई, सत्तसए तेवीसे चत्तारिसए य चउवीसे) आदि भागका.विष्कंभ प्रमाण एकहजार बाईस १०२२ योजनका मध्यभाग का विष्कंभ प्रमाण सातसौ तेईस ७२३ योजन का और अन्तिमभाग का विष्कंभ प्रमाण चारसौ चोईस ४२४ योजन का है। __ अब गोस्तुभ और उत्पातपर्वतके प्रमाणमें सर्वथा सादृश्यका निवारण करनेके निमित्त सूत्रकार कहते हैं (नवरं) इत्यादि, उससे इसमें विशेषता यह है कि ( उवरिल्लं पमाणं मज्झे भाणियवं) गोस्तुभपर्वत का अन्तिमभाग का जो प्रमाण कहा गया है वह प्रमाण उत्पात पर्वत के बीचभाग का जानना चाहिये, गोस्तुभपर्वत के अन्तिममाग का प्रमाण चारसौ चोईस ४२४ योजन का कहा गया है सो यह प्रमाण उत्पात पबैत के मध्यभाग का जानना चाहिये, यही बात (मूले दस बावीसे जोઆપવામાં આપેલ છે. તે ગેસ્તુભપર્વત નાગરાજાને આ પર્વત છે. તે લવણ સમુદ્રની વચ્ચે પૂર્વમાં આવેલ છે. તેના આદિ ભાગને અને ઉપરના ભાગને विम (मिति २॥ प्रमाणे छ (कमसो विक्खंभो से दसवावीसाइजोयणसयाई सत्तसए तेवीसे चत्तारिसए य चउवीसे) माहि लागनी वि०४ छ १०२२
જનને મધ્યભાગને વિશ્કેભ ૭૨૩ જનને અને ઉપરના ભાગને વિષ્કલ ४२४ यानना छ,
હવે ગેસ્તુભ અને ઉત્પાત પર્વતના પ્રમાણમાં જે તફાવત છે તે દર્શા११। माटे सूत्र१२ “नवर" माह सूत्रो छ-उवरिल्ल पमाणं मज्झे माणियव्वं " गौस्तुभ पतन। ५२ना मागर्नु भा५ मा थुछ ते भा५ पात પર્વતના મધ્યભાગનું સમજવું. એટલે કે સ્તુભ પર્વતના ઉપરના ભાગનું માપ ૪ર૪ જનનું કહ્યું છે, તે ઉત્પાત પર્વતના મધ્ય ભાગનું માપ ૪૨૪ योन सभा से बात “मूले दसबावीसे जोयणसए विखंभेण, मझे चत्तारि
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨