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भगवतीने त्मकत्वात् । इति द्वितीय प्रश्नस्योत्तरम् ॥ २ ॥ जे वि य ते खंदया पुच्छ ' यो पि च स स्कन्दक ! पृच्छा, पृच्छापदेन पिंगलकस्य सिद्धिविषयक सर्वोपि प्रश्नो वाच्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकादिविचारः समुपद्य ' इति संग्रहः, 'किं स अंता सिद्धी अणंता सिद्धी' किं सांता सिद्धिरनंतासिद्धिः 'तस्स वि य णं अयम?' तस्यापि च खल्वयमर्थः ‘एवं खलु मए खंदया ! चउचिहा सिद्धि पण्णत्ता' एवं खलु मया स्कन्दक ! चतुर्विधा सिद्धिः प्रज्ञप्ताः, ' तं जहा' तद्यथा 'दव्यो खेत्तो कालो भावओ' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः 'दबओ णं एगा सिद्धी स अंता' द्रव्यतः खलु एका सिद्धिः सांता एकत्वेन सांतत्वात् 'खेत्तओ णं सिद्धी पण भी अवस्था में अन्त नहीं आ सकता है, अतः जब जीव भाव की अपेक्षा अनंत ज्ञान दर्शन आदि पर्यायरूप है-तो इसका अर्थ यही होता है कि भाव की अपेक्षा जीव अनन्त है। इस प्रकार यह द्वितीय प्रश्न ना उत्तर है। __ 'जे वि य ते खंदया पुच्छा' हे स्कन्दक ! तेरा तीसरा प्रश्न यह है कि सिद्धि सान्त है कि अनन्त ? इसका अर्थ इस प्रकार से है-' एवं खलु मए खंदया! चउबिहा सिद्धी पण्णत्ता' हे स्कन्दक ! मैंने सिद्धि चार प्रकार की कही है-' तंजहा' जो इस प्रकार से है-' दवओ, खेत्तओ, कालओ भावओ' द्रव्य से, क्षेत्र से, कालसे और भाव से ! 'दव्वओ णं एगा सिद्धी स अंता' द्रव्य से एक सिद्धि है ! और वह एक होने के कारण ही सान्त-अन्त सहित है । क्षेत्र की अपेक्षा सिद्धि છે–તેમને કોઈ પણ અવસ્થામાં અંત સંભવનો નથી, તેથી જે ભાવની અપેક્ષાએ જીવ અનંત જ્ઞાન, દર્શન વગેરે પર્યાયરૂપ હોય તે તેને અર્થ જ એ થાય છે કે ભાવની અપેક્ષાએ જીવ અનંત એ ત રહિત છે આ રીતે બીજા પ્રશ્નનું સમાધાન કરવામાં આવ્યું છે. "जे वि य ते खंदया पुच्छा" है २४४! तमा। त्रीने प्रश्न या प्रमाणे छ-" सिद्धि सान्त (अन्त सङित) छ है मनात (मतसहित) छ ?" तेनु समान २॥ प्रभारी छ-" एवं खलु मए खंदया ! चउव्विहा सिद्धी पण्णत्ता" उ ४४४ ! में सिद्धि या२ प्रा२नी ही छ. ( त जहा) ते यार प्रा२। २मा प्रमाणे -" इव्वओ खेत्त श्रो, कालओ. भावओ" (१) द्रव्यनी, (૨) ક્ષેત્રની, (૩) કાળની અને (૪) ભાવની અપેક્ષાએ સિદ્ધિની અંતસહિતના मने मत२डिततानी पियार ४२ मे. “दव्वओ ण एगा सिद्धी स अंता द्रव्यनी अपेक्षा सद्धि से छे. मने ते मे डावाने हो । અંત સહિત છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ સિદ્ધિની લંબાઈ પહોળાઈ ૪૫ લાખ જ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨