________________
२५२
भगवती सूत्रे
शल्येन, तत्र क्रोधः=कृत्याकृत्यविवेकोन्मूलकोऽक्षमारूप आत्मपरिणामः ६ । मानो गर्वः ७ | माथा = शाठ्यम् ८ । लोभः = गृध्नुता ९ । प्रेम-प्रीतिरासक्तिर्वा कामभोगादिषु १० | द्वेषः =अप्रीति: ११ | कलहः = विरोधः १२ । अभ्याख्यानम् = असदोषारोपणम् १३ पैशुन्यं = परोक्षे कर्णान्तिकादौ विद्यमानस्याविद्यमानस्य वा दोषस्योद्घाटनम् १४ । परपरिवादः = प्रभूतजनसमक्षं परदोषप्रकाशनम् १५ ।
प्ररूपण रूप असत्य भाषण से देव, गुरु, राजा, गाथापति, साधर्मी द्वारा अननुज्ञात के आदानरूप अदत्तादान से, मैथुन से - स्त्रीपुरुष के संभोग कर्मरूप कुशील सेवन से, परिग्रह से धर्मोपकरण व्यतिरिक्त वस्तुओं के ग्रहण करने से अर्थात् धर्मोपकरण के सिवाय परपदार्थो में स्व स्वा मिभाव मानकर उनमें मूर्च्छा रखने से, जीव गुरुत्व भाव को प्राप्त कर लेता हैं इसी तरह क्रोधादिक जो आत्मा के विकारी भाव हैं उनसे भी जी गुरुत्व को पा लेते हैं । आत्मा में कृत्याकृत्य के विवेक जो जड़मूल से उखाड़ देने वाला जो अक्षमारूप परिणाम होता है उसका नाम क्रोध है । गर्व का नाम मान है । माया नाम कपटका है । ग्रध्नुता का नाम लोभ है इसे भाषा में लालच कहते हैं। कामभोग आदिमें आसक्तिका होना इसका नाम प्रेम है अथवा प्रीतिका नाम प्रेम है । अप्रीतिका होना इसका नाम द्वेष है। विरोध का नाम कलह है । असदोषोंका आरोपण करना इसका नाम अभ्याख्यान है । परोक्षमें, किसीके विद्यमान अथवा नहीं विद्यमान दोषोंका एकान्तमें प्रकट करना इसका नाम पैशुन्य है। अनेक जनों के समक्ष दूसरों के दोषोंको प्रकाशित करना इसका नाम परपरिवाद
(१) प्राथातिपातथी - बोनी विशेधना पुरषार्थी (२) भूषावाहथी असत्य ( 3 ) महत्ताहानथी हेव, गुरु, शन्न, गाथायति, तेमन साधर्मी वगेरे भारत न यायेसी वस्तु थड ४२वाथी, थोरी ४२वाथी (४) मैथुन - मायर्य - કુશીલ સેવનથી (૫) પરિગ્રહથી-ધર્મોપકરણ સિવાયની વસ્તુઓને ગ્રહણ કરવાથી તેમજ તેમાં માલીકીપણું રાખીને આસક્તિ રાખવાથી (૬) ક્રોધથી આત્મામાં સારા નરસાના વિવેકને જડમૂળથી ઉખેડી નાખનાર ઉગ્રતારૂપ જે પરિણામ उत्यन्न थाय छे तेनाथी (७) भानथी - गर्वथी (८) भायाथी - उपटथी, (ङ) बोलथी -झाझयथी, आशा तृष्ण्याथी (१०) राजथी - पौड्गसि वस्तुओमां यासहित राजवाथी. (११) द्वेषथी- अप्रीति-वेरजे२ (१२) सड्थी-विरोध राजवाथी, उलथा
असथी, (१३) अल्या ध्यानथी - अधना उपर आज थडाववाथी (१४) पैशुन्यथी—थाडी युगवीथी (१५) परपरिवाहथी मेड जीलनी निहा १२वाथी,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨