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भगबती सूत्रे
कथ्यन्ते । ' तत्थ णं जे ते असेलेसी पडिवण्णया ' तत्र खलु ये ते अशैलेशी प्रतिपद्मकाः, ' तेणं लद्धिवोरिएणं सवीरिया' ते खलु लब्धिवीर्येण सवीर्याः,
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करण वीरियेणं सीरिया वि अवीरिया वि ' करणवीर्येण सवीर्या अपि अवोर्या अपि । तत्र सवीर्या उत्थानादिक्रियावन्तः अवीर्यास्तु उत्थानादिक्रियारहिताः । ते पर्याप्तादि काले अवगन्तव्या इति । ' से तेणद्वेणं गोयमा' तत्तेनार्थेन गौतम ! ' एवं बुच्चर' एवमुच्यते-' सवीरिया वि-अवीरिया वि' सवीर्या अपि अवीर्या अपि, वीर्य - जीवप्रभवं बलम्, तत् लब्धिवीर्यकरणवीर्यभेदाद् द्विविधम्, तत्र लब्धिवीर्यम् आत्मबलस्य सत्ताविशेषरूपमेव, करणवीर्य तु कार्यकरणसमर्थांत्मबकहे गये हैं । (तत्थ णं जे ते असेलेसी पडिवण्या ते णं लद्विवीरिएणं सवीरिया वि करणवीरिए णं सवीरिया वि अवीरिया वि ) तथा जो अशैलेशी प्रतिपन्नक जीव हैं वे लब्धिवीर्य की अपेक्षा से सवीर्य होते हैं। और करणवीर्य की अपेक्षा से वीर्यसहित भी होते हैं और बिना वीर्यके भी होते हैं । उत्थान आदि क्रियावाले जो हैं वे सवीर्य हैं और उत्थान आदि क्रियाओं से जो रहित होता हैवे विना वीर्य के जीव- अपर्याप्त आदि समय में होते हैं । ( से तेगद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ, सवीरिया वि अवीरिया वि) इसी कारण से हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जो अशैलेशी प्रतिपन्नक जीव हैं वे वीर्य सहित भी होते हैं और बिना वीर्य के भी होते हैं । जीव से जो बल उत्पन्न होता है उसका नाम वीर्य है । यह वीर्य लब्धिवीर्य और करण - वीर्य के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें जो लब्धिवीर्य होना है वह तो आत्मबल की विशेष सत्तारूप ही होता है। तथा जो करणवीर्य नथी, तेथी ते अपेक्षाओ तेभने वीर्य - वीर्य रहित उद्या छे. ( तत्थ ण जे ते असेलेसी - पडिवण्णया ते ण लद्धिवीरिएण सवीरिया करणवीरिएण सीरिया वि अवीरिया वि ) तथा ने मशैलेशी प्रतिपन्न व छे तेयो सम्धिवीर्यनी અપેક્ષાએ સર્વીય છે. પણ કરવીયની અપેક્ષાએ વીયસહિત પણ હોય છે અને વીરહિત પણ હાય છે. ઉત્થાન વગેરે ક્રિયાવાળા જેઓ હાય છે તે સવીય હાય છે, અને જેએ ઉત્થાનાદિ ક્રિયારહિત હોય છે તે અવીય होय छे अपर्याप्त वगेरे समयमां व अवीर्य होय छे. (से तेणहूण' गोयमा ! एवं वुच्चइ, सवीरिया वि अवीरिया वि) हे गौतम! ते भर में वुह्यं છે કે અશૈલેશી પ્રતિપત્રક જીવ વીસહિત પણ હાય છે અને વીરહિત પણ હાય છે. જીવમાં જે મળ ઉત્પન્ન થાય છે તેને વીય કડે છે. તે વીચના એ પ્રકાર તે–(૧) લબ્ધિવીય અને (૨) કરણવી. તેમાં જે લબ્ધિવીય છે. તે તા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨