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________________ भगवतीसूत्रे तनिषेधादव्युत्क्रान्तिकं तद् यथा स्यात्तथा 'चयमाणे' च्यवमानः, जीवन्नेव मरण मापद्यमान इत्यर्थः, किम् 'किंचिकालं' किञ्चित्कालम् , कियन्तमपि कालम् 'आहारं नो आहारेइ' इत्यग्रेतनेन सम्बन्धः कुतः कियत्कालं नाहरति तत्राह-'हिरिवत्तियं' हीप्रत्ययम्, लज्जानिमित्तं नाहारयतीति देवो हि च्यवनसमये उत्पत्तिस्थानं पश्यति दृष्ट्वा च देवभवविलक्षणं पुरुषोपभुज्यमानस्त्रीगर्भाशयरूपम् । तत्राहं स्वकीयं सर्वसुखदं स्थानं परित्यज्य यास्यामी 'ति कृत्वा नाहरति, तथा 'दुगुंछापत्तियं ' जुगुप्साप्रत्यय, कुत्सानिमित्तं शुक्रशोणितादेरुत्पत्तिकारणस्य जुगुप्साकारणत्वात् , ' परिसहवत्तियं' परिषहप्रत्ययम् , इह प्रकरणात् परिषहशब्देनारतित्य बलवाला हो ( अविउकिंतियं चयं चयमाणे ) और मरने के सन्मुख हो रहा हो-अभी वहां से च्युत नहीं हुआ हो जीते जी ही जो मरने की तैयारी कर रहा हो- ऐसा वह देव (किंचि कालं आहारंनो आहारेइ) कुछ कालतक आहार नहीं लेता है । कुछ कालतक उसके आहार नहीं लेने में कारण यह है कि यह (हिरिवत्तियं) लजित होता है-अर्थात् देव च्यवनसमय में अपने प्राप्त होनेवाले उत्पत्तिस्थान को देखता है सो देवभवसे विलक्षण अपने उत्पत्तिस्थानको कि जो पुरुषद्वारा भोगी जाती स्त्रीके गर्भाशयरूप होता है देखकर उसे यह विचार आता है कि मैं उस स्थान में अपने इस सर्वसुखद स्थान को छोड़कर जाऊँगा, इस विचार से वह लज्जायुक्त बनकर खाता नहीं है (दुगुंछावत्तियं) नहीं खाने में दसरा कारण उसे घृणा आती है, क्यों कि वह यह जानता है कि मेरी उत्पत्ति का कारण शुक्रशोणित आदि है, ऐसा जानकर उसे घृणाग्लानि आती है। (परिसहवत्तियं) यहां प्रकरणवश परीषह शब्द से पानी या वगैरेभा अयिन्त्य वाणी जाय, “अविउक्क तियं चयं चयमाणे" અને જે મૃત્યુની નજીક પહોંચી રહ્યો હોય. જો કે હજી ત્યાંથી ચ્યવન (મરણ) थयुं नथी ५ २ भवानी तैयारीमा हाय छ, “ किंचिकालं आहारं नो आहारेइ” ते ३१ । समय २२ खेतो नथी. "हिरिवत्तिय ते Altra થાય છે. કારણકે દેવ પિતાના ચ્યવન સમયે પિતાનું ભાવિ ઉત્પત્તિસ્થાન પિતાના જ્ઞાનથી જુવે છે. તે ઉત્પત્તિસ્થાન સ્ત્રીના ગર્ભાશયરૂપ હોય છે. ચ્યવનકાળે દેવને મનમાં એ વિચાર આવે છે કે આ સુખના સ્થાનને છોડીને મારે એવા દુઃખદ સ્થાનમાં જવું પડશે? આ વિચાર આવવાથી લજાયુક્ત બનીને તે माता नथी. “दुगुंछावत्तियं" नही भावानुं भाई ॥२६तेना मनमा उत्पन्न થતી ઘણું પણ છે. કારણકે પોતાની ઉત્પત્તિનું કારણ શુક શેણિત વગેરે છે, सनीन तेन । थाय छ, “परिसहवत्तियं" मही: "५५" ५६ १९ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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