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प्रमेयचन्द्रिका टीकाश०२ उ०८ सू०१ चमरेन्द्रस्य सुधर्मासभादिनिरूपणम् ९८७
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शते किञ्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण २२८६ किंचिद्विशेषाधिके " मूले वित्थडे " मूले विस्तृतः उपपातपर्वतः "मज्झे संखित्ते " मध्ये संक्षिप्तः " उपि विसाले " उपरिविशाल: 'मज्झे वरवइरविग्गहिए' मध्ये वरवज्रविग्रहितः तत्र वरः= श्रेष्ठः वज्रः तन्नामकः शस्त्रविशेषः आकृतिः = स्वरूपम् ततश्च वरवज्रस्येव विग्रहः आकृतिर्यस्य स वरवज्रविग्रहः ततो वरवज्रविग्रहात् स्वार्थिकक प्रत्यये कृते सति वरवज्रविग्रहिकः मध्ये क्षामः कृश इत्यर्थः । एतदेव दर्शयति " महामउंदसंठाण संठिए " महामुकुन्द संस्थानसंस्थितः मुकुन्दो = वाद्यविशेषः महांश्वासौ मुकुन्द:महामुकुन्दस्तस्य संस्थानमाकृतिविशेषः तदिव संस्थितः तदाकृतिवदाकृतिमा नित्यर्थः असौ उपपात पर्वतः " सव्वरयणामए " सर्वरत्नमयः उपपातपर्वतः, अच्छ० अच्छः स्वच्छः स्फटिकादिवि निर्मलः जाव पडिरूवे " यावत् इसका परिक्षेप कुछ विशेषाधिक दो हजार दो सौ छयासी २२८६ योजन का है । (मूले वित्थडे ) पहिले जो इसका विष्कंभ प्रकट किया गया है उससे यह बात निश्चित होती है कि यह पर्वत मूल में विस्तृत है, (मज्झे संखित्ते) मध्य में संक्षिप्त है और ( उपि विसाले ) ऊपर में विशाल है । (मज्झे वर बहर विग्गहिए ) यहां विग्रह का अर्थ आकृति है, वर वज्र श्रेष्ठ वज्र नाम के शस्त्र के समान इस पर्वत की आकृति है अतः वह वर वज्र विग्रहिक है । इससे यह प्रकट किया गया कि यह पर्वत मध्य में कृश है । ( महामउंदसंठाणसंठिए) मुकुन्द नाम वाद्यविशेष का है सो इस वाद्यविशेष की जैसी आकृति होती है वैसी आकृति वाला यह उत्पात पर्वत है । इससे भी यह मध्य में कृश है यही प्रकट किया गया है । यह उत्पात पर्वत ( सव्वरयणामए ) सर्व - रत्नमय है | ( अच्छे ) स्फटिकमणि आदि के समान यह निर्मल है । विसेसाहिए परिक्खेवेणं” उपरना लागमां तेना परिक्षेप २२८६णावीससो छयासी योन्न ४२तां थोडे। बधारे छे. “मूलविउत्थडे" मा रीते तेनेो भूजलाग विस्तृत छे, “मज्झे संखित्ते” मध्यलाग संक्षिप्त छे, भने “ उप्पि विसाले” उपरना लाग विशाण छे. " मज्झे वरवर विग्गहिए " सहीं विश्रडुनो अर्थ आजर सभवान। छे. ते पर्वतना भार वरब्रज ( श्रेष्ठ वत्र नामना शस्त्र ) समान छे. તેથી ને પતને વરવ વિગ્રહિક ( શ્રેષ્ઠ વના જેવા આકારના ) કહ્યો છે. मुडेवानुं तात्पर्य यो छे ते पर्वत मध्यभागमां संक्षिप्त-श छे " महमद संठाणसंटिए " भुह नामनुं मेड वाघ होय छे. भुहुंहना वा भरना ते ઉત્પાત પત છે. આ સૂત્ર દ્વારા પણ એજ વાત પ્રકઢ કરી છે કે તે મધ્યમાં डूश (संक्षिप्त) छे, ते उत्पात पर्वत “सव्वरयणामए " सर्वरत्नमय छे. "अच्छे"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨