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________________ ८०८ भगवतीने भवन्ति । ये तु असंज्ञिभ्यः समुत्पद्यन्ते तेषामन्तर्मुहर्तात् परतो विभङ्गस्योत्पत्तिरिति तेषां पूर्वमशानद्वयं, पश्चाद्विभङ्गस्योत्पत्तौ अज्ञानत्रयं भवतीत्यत एव कथितम्-'तिण्णि अण्णाणाई भयणाए' त्रीणि अज्ञा नि भजनया, भजनया विकल्पनया कदाचिद् द्वे कदाचित् त्रीणि अज्ञानानि, इात । अत्रार्थे भवति गाथाद्वयम् " सन्नी नेरइएसु, उरल परिच्चायणंतरे समये । विन्भंगं ओहिं वा, अविग्गहे विग्गहे लहइ ॥१॥ असन्नी नरएसु, पज्जत्तो जेण लहइ विभंग। नाणा तिन्नेव तओ, अन्नाणा दोन्नि तिन्नेव " ॥२॥ छाया-संज्ञी नैरयिकेषु औदारिकपरित्यागानन्तरे समये। विभङ्गमवधि वा अविग्रहे विग्रहे लभते ॥१॥ असंज्ञी नरकेषु पर्याप्तो येन लभते विभङ्गम् । ज्ञानानि त्रीण्येव ततः अज्ञाने द्वे त्रीण्येव (अज्ञानानि ) ॥२॥ में से या असंज्ञीजीवों में से उत्पन्न होते हैं। जो संज्ञी जीवों में से उत्पन्न होते हैं वे भवप्रत्यय विभङ्ग होने के कारण तीन अज्ञानवाले होते हैं, और जो असंज्ञी जीवों में से उत्पन्न होते हैं उनके अन्तर्मुहर्त के बाद विभङ्ग ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये उनके पहिले के रहे हुए दो अज्ञान और बाद में विभङ्ग ज्ञान की उत्पत्ति होने पर तीन अज्ञान होते हैं। पहिले के दो अज्ञान तो उनमें है ही और यहां उत्पन्न होने पर उनके एक विभङ्गज्ञान और हो गया इस तरह ये तीन अज्ञान होते हैं । इसीलिये कहा है कि "तिणि अण्णाणाई भयणाए" तीन अज्ञान भजना से होते हैं कभी दो अज्ञान होते हैं और कभी तीन अज्ञान होते हैं । इस सम्बन्ध में ये दो गाथाएँ हैं "संत्री नेरइएसु ઉત્પન્ન થાય છે. તે ભવ પ્રત્યય વિભંગ જ્ઞાન હોવાને કારણે અજ્ઞાની હોય છે. અને જે અસંસી છમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેમ વિભંગ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ અન્તર્મહર્ત પછી થાય છે. તેમનામાં બે અજ્ઞાન તો પહેલેથી જ રહેલાં હોય છે અને વિભંગ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થતાં ત્રણ અજ્ઞાન થાય છે, પહેલાંના બે અજ્ઞાન તે તેમનામાં છે જ અને અહીં ઉત્પત્તિ થવાથી ત્રીજા વિભંગ જ્ઞાનને વધારે થયે. આ शततमनामा पत्र मज्ञान थाय छे. तेथी । ह्यु है “तिण्णि अण्णाणाइ भयणाए" त्र अज्ञान. मनामे (वि४५) डाय छ-४या२४ थे मज्ञान डीय मन या२४ २५ भज्ञान हाय छे. ते विष “सन्नी" नेरइ एसु-असत्री नरएसु" त्यादि. मे आयाम छ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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