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भगवती सूत्रे
सत्कर्म निर्जीयत इति निर्जरासुत्रमाह-' से नृणं भते' इत्यादि, 'से नूणं भंते' तद् नूनं भदन्त ! 'अप्पणाचेव निज्जरेइ' आत्मनैव निर्जरयति 'अप्पणाचेव गरहइ ' आत्मनैव गर्हते, हे भगवन् जीवः स्वकृतं कर्म स्वयमेव निर्जरयति - आत्मप्रदेशेभ्यः शातयति ? स्वयमेव तादृशं कर्म निन्दति किमिति प्रश्नाशयः । 6 एत्थ वि सच्चेव परिवाडी' अत्रापि निर्जरा विषयेपि सैव उदीरणासूत्रोक्तैव परिपाटी विज्ञेया । नवरं = केवलं विशेष एतावानेव - 'उदयानंतरपच्छाकडे कम्मं निज्जरेइ' उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति, उदयेनानन्तरसमये यत् पश्चात्कृतम् = अतीततां प्रापितं कर्म तत् उदयानन्तर पश्चात्कृतमिति कथ्यते, एतादृशं कर्म निर्जरयति-आत्मप्रदेशे
जिस कर्म का वेदन होता है उसकी निर्जरा होती है इसलिये अब सूत्रकार निर्जरासूत्र का कथन करते हुए कहते हैं कि - " से नूणं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेइ, अप्पणा चेव गरहइ" यहां प्रश्न इस प्रकार से करना चाहिए - हे भदन्त ! क्या जीव अपने आप ही कर्म की निर्जरा करता है ? और अपने आप ही क्या उसकी निन्दा करता है ? उत्तर हां गौतम ! जीव अपने आप ही कर्मकी निर्जरा करता है और अपने आप ही उसकी निन्दा करता है। आत्मप्रदेशों से कर्मपुङ्गलों का थोड़ा परिशाटन होना - दूर होना- इसका नाम निर्जरा है । इस निर्जराके विषय में भी उदीरणासूत्र में कथित जैसे ही परिपाटी जाननी चाहिये। केवल विशेषता इतनी है कि-" उदयानंतर पच्छाकडं कम्मं निज्जरेह" जीव जो कर्म की निर्जरा करता है वह ऐसे कर्म की ही निर्जरा करता है कि जो कर्म उदय से अनन्तर समय में पश्चात्कृत होता है। यहां पर यही જે કર્મોનું વેદન થાય છે તેની નિર્જરા થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર निर्भरा सूत्रनुं निइया रतां उडे छे - " से नूणं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेइ, अपणा चैव गरes ” હે પૂજ્ય ! શું જીવ પોતાની જાતે જ કર્મીની નિરા કરે છે? અને શુ' જીવ પાતાની જાતે જ કર્મીની નિંદા કરે છે ? ઉત્તર-હા, ગૌતમ ! જીવ પેાતાની જાતે જ કની નિર્જરા કરે છે અને પેાતાની જાતે જ કની નિદા કરે છે.
આત્મપ્રદેશમાંથી ક પુદ્દગલાનું થાડુ' થેાડુ દૂર થવું-અલગ થવું-તેનું નામ નિરા છે. આ નિર્જરાના સંબંધમાં પણ ઉદીરણાના સૂત્રમાં કહેલી परिपाटी प्रमाणे ४ उथन . परंतु निशमां भेटलो ३२ छे “उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निज्जरेइ " लव सेवा अर्मनी निर्भरा रे छे से थे दुर्भ ઉદયાનન્તરપશ્ચાત્કૃત હેાય છે. અહી પહેલાના ત્રણ વિકલ્પો છેડીને ચાથા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧