SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 899
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८० समवायाङ्गसूत्रे थे (भवति य) भवन्ति च-हैं (भविस्संति य) भविष्यन्ति च-रहेंगे ही, (अयला) अचला-ये अचल हैं, (धुवा) ध्रुवाः-ध्रुव हैं, (गिइया) नियताःनियत हैं, (सासया) शाश्वता-शाश्वत है, (अक्खया) अक्षयाः-अक्षय हैं, (अव्वया) अव्ययाः-नाश रहित है (अवट्ठिया) अवस्थिताः-अवस्थित हैं, (णिच्चा) नित्याः-नित्य हैं (एवामेष) एवमेव-इसी तरह से (दुवालसंगेगणिपिडगे) द्वादशांगो गणिपिटकः-यह द्वादशांगरूप गणिपिटक (णक याइ ण आसि) न कदापि नासीत्-कभी नहीं थे यह बात नहीं है, (ण कयाइ ण णत्थि) न कदापि नास्ति-कभी नहीं है यह बात नहीं है, (ण कयाइ ण भविस्सइ) न कदापि न भविष्यति-कभी रहेगा यह बात नहीं है, (भुविं च) अभवत् च-था (भवइ च-भवति च-हैं (भविस्सइ च) भविष्यति च-रहेगा (अयले) अचलः (धुवे) ध्रुव; (जाव अबट्टिए) यावत् अवस्थितः (णिच्चे) नित्यः (एत्थ णं दुवालसगे-गणिपिडगे) अत्र खलु द्वादशाङ्गे गणिपिट के इस गणिपिटकरूप द्वादशांग में (अणंता भावा) अनन्ता भावाः-अनंत जीवादिकपदार्थ (अणंताऽभावा) अनन्ता अभावाःअनंत अभावरूप पदार्थ (अणता हेऊ)अनन्ताहेतवः-अनत हेतु, (अणंता अहेऊ) अनन्ता अहेतवः-अनंत अहेतु, (अणंता कारणा) अनन्तानि कार૪-પાંચે અસ્તિકાય ભૂતકાળમાં હતા, વર્તમાનમાં છે અને ભવિષ્યકાળમાં હશે જ (अयला) अचला:-ते। अयस छे (धुवा) ध्रुवा:-ध्रुव छ, (णिइया) नियता:नियत छ, (सासया) शाश्वता:-शवत छ, (अक्खया, अव्वया, अवडिया, णिचा) अक्षयाः, अव्ययाः, अवस्थिताः, नित्याः-मक्षय, नाशरहित, स स्थित मने नित्य छ (एवामेव) एवमेव-मे ४ प्रभा (दुवालसंगे गणिपिडगे) द्वादशांगो गणिपिटक:-मा शां३५ 04e3 (ण कयाइ ण आसि) न कदापि नासीत-ही न तु मेम मानी शाय तेभ नथी, (ण कयाइ णत्थि) न कदापि नास्ति-यारेय तेनु मस्तित्व नथी की वात ५७१ मान्य नथा, (ण कयाइ ण भविस्सइ)न कदापि न भविष्यति- हेरी नडी मे पात भान्य नथी. मेट है अणे मां तेनु मस्तित्व २३४. (अचले, धुवे, जाव अवट्ठिए णिच्चे) अचल:, ध्रुवः, यावत् अवस्थितः, नित्यः-मय, ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, भव्यय, मपस्थित मने नित्य छे. (एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे) अत्र खलु द्वादशांगे गणिपिटके-मा पि८४३५ मा२ मनमा (अणंता भावा) अनन्ता भावा-मानता हाथ, (अणंताऽभावा) अनन्ताः अभावा:-मनत समाव३५ पार्थी, (अणताहेऊ) अनन्ता हेतवःमनात हेतु, (अणंता अहेऊ) अनन्ता अहेतवः मनात महेतु. (अणंता कारणा) શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy