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________________ ६९६ समवायाङ्गसूत्रे सप्तषठयाः सप्तषाष्टसंख्यकानाम्, 'अण्णाणियवाइणं' अज्ञाानकवाादनाम्-'अज्ञानमेव श्रेयः' इति वादिनाम् । एतेषां मते सप्तपष्टिरज्ञानानि भवन्ति । अज्ञा. नवादिनो हि मन्यते नहिकश्चिद्ज्ञानवान् , ज्ञानिषु परस्परं विसंवाददर्शनात् । अतोऽज्ञानमेवश्रेयः। एते हि जीवादीन् नव पदार्थान् सदादिभिः संयोज्य स्वमतमेवं प्रदर्शयन्ति-(१) सन् जीवः, कोवेत्ति ? किंवा तेन ज्ञातेन । (२) असत् जीवः, को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ? [३] सदसन् जीवः, को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन ? [४] अवक्तव्यो जीवः को वेति ? किं वा तेन ज्ञातेन ? अक्रियावादी कहे जाते हैं।' अज्ञान ही श्रेयस्कर हैं' इस बात को मानने वाले अज्ञानवादी हैं। अज्ञान इनके मन्तव्यानुसार ६७सरस प्रकार का होता है। इन अज्ञानवादियों की ऐसी मान्यता है कि कोई भी ज्ञानवान् नहीं है। जिन्हें ज्ञानी माना जाता है उनमें भी परस्पर में विसंवाद भेद) देखा जाता है। अतः अज्ञान ही हितावह है। ये जीवादिक नौ पदार्थों को सद् आदि के साथ जोडकर अपने मतको इस प्रकार से प्रदर्शित करते हैं (१) सन् जीवः को वेत्ति-जीव सत् है-मौजूद है-इस बात को कौन जानता है, 'किंवा तेन ज्ञातेन' यदि जान भी लिया जावे हमें इस जानने से लाभ क्या है। 'असत् जीवः-को वेत्ति ? किंवा तन ज्ञातेन' जीव असत् है-नहीं है-यह कौन जानता है-अथवा-जान भी लिया जावे तो इससे लाभ क्या है। 'सदसन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन' जीव सत् असत् स्वरूप है इस बात को कौन जानता है। यदि जान भी लिया जावे तो इस जानने से क्या फायदा है। इसी तरह से 'अवक्तव्यः છે. “અજ્ઞાન જે શ્રેયસ્કર છે એમ માનનારને અજ્ઞાનવાદીઓ કહે છે. તેમના મત પ્રમાણે ૬૭ સડસઠ પ્રકારનું અજ્ઞાન છે એ અજ્ઞાનવાદીઓની માન્યતા એવી છે કે જ્ઞાની કઈ પણ નથી. જેમને જ્ઞાન માનવામાં આવે છે તેમની વચ્ચે પણ પરસ્પરમાં વિસંવાદ નજરે પડે છે. તેથી અજ્ઞાન જ હિતકારી છે. તેઓ છવાદિક નવપદાર્થ સાથે सद् माहितीन पोताना मत भी प्रमाणे शिविछ-(१)सन् जीवः को वेत्ति ? ७१ सत्-भानु छ, ये पातने आ on ,? "किंवा तेन ज्ञातेन?न्ने ongी सेवामां आवे तो ते onाथी आपने शो माल थायॐ १ (२)असत् जीवः को वेत्ति ? किंवा तेन ज्ञातेन? नु अस्तित्व नथी ते tu and छे ? अथवा तेती सेवामा मातोश सा ? (3) सदसन् जीवः कोवेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन? જીવ સત્ અસત્ સ્વરૂપ છે, તે વાતને કોણ જાણે છે? અને જે તે જાણી લેવામાં भावे तो यहोश १ मे प्रमाणे (४)अबक्तव्यःजीवः को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन? શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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