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________________ भावबोधिनी टीका. चतुर्दशसमवाये चतुर्दश भूतग्रामादिनिरूपणम् १८१ सादयति अपनयतीति आसादनम् अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् , सति ह्यस्मिन् परमानन्दरूपानन्तसुखफलदोऽपवर्गरूपतरुबीजभूतऔपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः पतिरावलिकाभिरपगच्छति, तेनासादनेन सहवर्तते सासादनः, सम्यक अविपरीता दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्यासौ सम्यग्दृष्टिः, सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च-सासादनसम्यग्दृष्टिः । अथवा सास्वादनसम्यग्दृष्टिः आस्वादनेन सम्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन सह वर्तते सास्वादनः यथा श्रीरान्ने भुक्ते तत्रारुचिवशादुवमन् पुरुषो चमनकाले तद्रसमास्वादयति तथा मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वाद् विगलितचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमन्नपि अनासादिलाभरूप आय को जो दूर करदे, ऐसी अनंतानुबंधीकषाय के वेदन का नाम आसादन है। इस आसादन के होने पर परमानंदरूप अनंतसुखफलदाता और अपवर्गरूप वृक्ष का बोज जो औपशमिक सम्यक्त्व है उसका लाभ जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह आवलिका प्रमाण कालतक रहता है, बाद में नहीं रहता। इस आसादन के साथ जो रहता है उसका नाम सासादन है। तथा जिन प्रणीत वस्तुतत्त्व की प्रतिपत्ति जिस जीव के अविपरीत-सम्यक हो उसका नाम सम्यग्दृष्टि है। इस आसादन सहित जो सम्यग्दृष्टि है उसका नाम सासादन सम्यग्दृष्टि है। अथवा"सासायणसम्मदिट्ठी” की छाया "सास्वादन सम्यग्दृष्टि" ऐसी भी होती है, इसका अर्थ-सम्यत्व रूप रस के आस्वाद से जो युक्त होता है उसका नाम सास्वादन है। जिस प्रकार खीर के खा लेने पर अरुचि के वश से उसे वमन करता हुआ व्यक्ति वमनकाल में उसके रस का आस्वादन करता है, उसी तरह मिथ्यात्व के सन्मुख हुआ भी मिथ्यात्वभूमि पर (मा५५) ने २ २ ४३॥ नामे, मेवी मन तानुमचा पाय वेहनने आसादन ४ છે. આ અસાદન થતાં પરમાનંદ રૂપ અનંત સુખ--ફલદાતા અને અપવર્ગરૂપ વૃક્ષના બીજ જેવું જે ઔપશમિકસમ્યકત્વ છે તેને લાભ જઘન્યની અપેક્ષાએ એક સમય અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ છ આવલિંકા પ્રમાણ કાળ સુધી રહે છે, પછી રહેતો નથી. આ અસાદનની સાથે જ રહે છે તેનું નામ સરન છે તથા જિન પ્રરૂપિત વસ્તુ તત્વની સિદ્ધિ છે જીવને અવિપરીત–સમ્યફ હોય તેનું નામ સમ્યકષ્ટિ છે. તે અસાદન સહિત જે સમ્યગૃષ્ટિ હોય તેને સાસાદન સમ્યગદષ્ટિ કહે છે. અથવા– "सासायण सम्म दिट्ठी" नी छाया "सास्वादन सम्यग्दृष्टि" मेवी ५४ थाय છે. તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે-જેમ ખીર ખાધા પછી અચને કારણે તેનું વમન કરતો માણસ વમનકાળમાં તેના રસનું આસ્વાદન કરે છે, એ જ પ્રમાણે મિથ્યાત્વની શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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