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________________ १०३८ समवायाङ्गसूत्र - - जाव समुच्छिमपचिंदियातरिक्खजाणियात्त ) एवं यावत्संमूछिम पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति-इसी तरह से जो पंचेन्द्रिय-तिर्यश्च योनी के जाव हैं कि जिनके संमूछिम जन्म होता है वे भी सेवातंसंहनन वाले हैं ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य इसका यह है कि एकेन्द्रिय से लेकर संमूछिम तक के तिर्यश्च जीव सब ही सेवार्तसंहनन से युक्त होते है। (गम्भवतियो छविहसंघयणी) गर्भव्युत्क्रान्तिकाः षड्विधसंहनिनः जो जीव गर्भ जन्म वाले होते हैं उनके अर्थात् गर्भजतिर्यंच जीवों के छहो संहनन होते हैं। (समुच्छिममणुस्सा छेवट्ठसंघयणी) संमूच्छिम-मनुष्याः सेवा. तसंहन निन:-तथा जो संमूच्छिम जन्मवाले मनुष्य होते हैं सेवार्तसंहनन होता है। (गम्भवतियमणुस्सा छव्विहसंधयणी पण्णत्ता) गर्भव्युत्क्रा. न्तिकमनुष्याः षड्विधसंहनिनः प्रज्ञप्ताः-इसी तरह से जो गर्भ जन्मवाले मनुष्य होते हैं। (जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य) यथाऽसुरकुमारास्तथा व्यन्तरज्योतिषिक वैमानिकाच-जिस प्रकार असुरकुमार देव विना संहनन के होते हैं उसी प्रकार से व्यन्तर देव ज्योतिषिकदेव और वैमानिक देव भी विना संहनन के होते हैं। (कइविहे गं भंते संठाणे पण्णत्ते) कतिविधं खलु भदन्त ! संस्थानं प्रज्ञप्तम्-हे भदंत! सनन थुत डाय छे. (एवं जाव संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ति) एवं यावत् संमूच्छिमपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका इति-मेल प्रमाणे संभू. મિ જન્મવાળા પંચેન્દ્રિય તિર્યં ચનિના જીવોને પણ સેવાર્તાસંહનન હોય છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે એકેન્દ્રિયથી લઈને સંમૃØિ મ પંચેન્દ્રિય સુધીનાં બધાં तिर्थ यो सेवानिनवाजiाय छे. (गन्भवतिया छविहा संघयणी) गर्भव्युत्क्रान्तिकाः षड्विधसंहनिन:- भवाणा वाने मेसे 3 गा तय"4 वोने छन्थे सनन डाय छे. (समुच्छिममणुस्सा छेवठ्ठ संघयणी) संमूछिममनुष्याः सेवार्तसहननिनः-स भूमि भी मनुष्योने सेवात - संनन डाय छे (गब्भवलंतियमणुस्सा छविह संघयणी पण्णत्ता) गर्भव्युस्क्रान्तिकमनुष्याः षड्विधः संहनिनः प्रज्ञप्ता:-Hrreqाणा मनुष्ये। ५९ ७ सननाथी युति डाय छ.(जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसिय वेमाणियाय ) यथाऽसुरकुमारास्तथा व्यन्तरज्योतिषिक वैमानिकाचપ્રમાણે અસુરકુમારદે સંહનન વિનાના હોય છે, એ જ પ્રમાણે વ્યંતરદે, यातिपो मने वैमानियो ५९सनन विनाना डाय छे प्रश्न-(कइविहेणं भंते ! संठाणे पण्णत्ते ?) कतिविधं खलु भदन्त ! संस्थानं प्रज्ञप्तम्-- શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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