SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1036
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावबोधिनी टीका. अवधिज्ञानस्वरूपनिरूपणम् १०१७ अनन्तराहाराः उपपातक्षेत्रमाप्तिसमये एवाहारयन्तीत्यर्थः, 'तओ निव्वत्तणया' ततो निवर्तनता-ततः शरीरं निवर्तयन्तीत्यर्थः, 'तओ परियाइयणया' ततः पर्यादानता ततोऽङ्गोपाङ्गं निगृह्णन्तीत्यर्थः, 'तओ परिणामणया' ततः परिणामनता इन्द्रियादिविभागैः परिणति कुर्वन्तीत्यर्थः, 'तो परियारणया' ततः परिचारणता शब्दादिविषयानुपभुञ्जते इत्यर्थः, 'तओ पच्छा विउव्वणया' ततः पश्चाद् विकुर्वणा वैक्रियकरणशक्तियुक्ता भवन्तीत्यर्थः, 'हंता गोयमा ! एवं' हंत गौतम! एवम् हन्तेति स्वीकृतिसूचकमव्ययम् । हे गौतम ! एवमेवास्ति । अत्र 'आहा. रपयंभाणियव्वं' आहारकपदंप्रज्ञापनायाश्चतुस्त्रिंशत्तमं पदं भणितव्यम् ।।सू. १९१।। (अणंतराहारा) अनन्तराहारा:-अनन्तर आहार वाले होते हैं-(तो णिवत्तणया) ततो निर्वननता-इसके बाद उनके शरीर की रचना होती है। (तओ परियाइयणया) तत- पर्यादानता-बाद में अंग और उपांग बनते हैं। (तओ परिणामणया य) ततः परिणामनताश्च-फिर इन्द्रियादिकों का विभाग होता है। (तओ परियारणया) ततः परिचारणता-इसके अनन्तर शब्दादिक विषयों का वे भोग करते हैं। (तओ पच्छा विकुव्वणया) ततः पश्चाद् विकुर्वणा बाद में वे वैक्रिय करने की शक्ति से युक्त होते हैं। सो यह ऐसी ही बात है क्या?(हंता गोयमा! एवं) हंत गौतम? एवम् हां गौतम यह ऐसी ही बात है (आहारपयं भाणियवं) आहारपदं भणितव्यम्-इस प्रकार से आहारपद का वर्णन प्रज्ञपना के ३४ वें पद में देखना चाहिये ॥१९१॥ टीकार्थ-(कइविहाणं भंते! ओही पण्णत्ता) इत्यादि! हे भदंत ! नैरयिकाः खलु भदंत !-3 Rea! ना२पो (अणंतराहारा) अनन्तहाराःमन्नत मानवाला डाय छे. (तो णिवत्तणया ततो निर्वर्त्तनता-त्या२ मा तमना शनी स्यना थाय छे. (तओ परियाइयणया) ततः पर्यादानतात्या२मा २५ मने पो मने छ. (तो परिणामणया य ततः परिणामताश्च पछी धन्द्रिय माहिना विमा थाय छे. (तओ परियारणया) ततः परिचारणतात्या२ माई शहा विषयाने ते लोगवे छे. (तओ पच्छा विकुव्वणया) ततःपश्चद् विकुर्बणा-त्या२मा त यि तथा यु४त भने छ. हे मत! मा पात ५२।५२ छ ? (हंता गोयमा !) हंत गौतम ! एवम्-डे गौतम ! मे प्रमाणे • डाय छे. (आहारपयं भाणियन्वं) आहारपदं भणितव्यम्-माडा२५६नु વર્ણન પ્રજ્ઞપના સૂત્રના ૩૪માં પદમાં લેવું જોઈએ સૂ. ૧૧૫ टीकार्थ-(कइविहाणं भंते ! ओही पण्णत्ता) इत्यादि प्रश्न-3 मई त ! ૧૨૮ શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy