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________________ स्थानागसूत्रे जीचे भूमेर्याप्तत्वात् । इत्थं निर्गमननिषेधमुक्त्वा सम्पति तदपवादमाह-पंचहिं ठाणेहि ' इत्यादि । मूत्राक्तै भयदुर्भिक्षादिभिः कारणैस्तु गन्तुं कल्पते एवेति । 'वासापास' इत्यादि-वर्षावासंवर्पाकालं पर्युवितानां स्थितानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा ग्रामानुग्रामं गन्तुं न कल्पते । ज्ञानार्थतादिभिः पञ्चभिः स्था नैस्तु कल्पते एव । तदेवोपदर्शयितुमाह- पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि । तथाहिनिषिद्ध है, आगमसे वर्जित हैं, क्योंकि उस समम द्वीन्द्रियादि जीवोंसे भूमि व्याप्त हो जाती है, इस तरहसे एक ग्रामसे दूसरे ग्राम में जानेका निषेध प्रकट कर अब सूत्रकार इसमें जो अपवाद मार्ग है, उसका कथन करते हैं-" पंचहि ठाणेहिं कप्पा” इत्यादि। यद्यपि वर्षाऋतुमें साधु साध्वियोंको एक स्थानसे दूसरे स्थानमें आनाजाना शास्त्राज्ञानुसार निषिद्ध है, और ऐसाही यह उत्सर्ग मार्ग है, परन्तु फिर भी इस विषयमें अपवाद मार्ग ऐसा है, कि यदि सूत्रोक्त भय दुर्भिक्ष आदि कारण उपस्थित हो जाते हैं, तो ऐसी स्थितिमें वर्षा ऋतुमें भी साधु आदिको एक स्थानसे दूसरे स्थान ग्राममें जाना कल्पित कहा गया है। " वासावासं पज्जोसवियाणं णो कप्पइ० " इत्यादिवर्षाकालमें एक स्थान पर ठहरे हुए साधु आदिको एक गांचसे दूसरे ग्राम विहार करना उचित नहीं है-शास्त्राज्ञासे विरुद्ध है, परन्तु-" पं. चहिं ठाणेहिं कप्पइ तं जहा णाणट्टयाए ? " इत्यादि-इन कारणोंको लेकर वे वर्षाकालमें भी एक स्थानसे दूसरे स्थान पर जा सकते हैं, इनमें सबसे पहिला प्रयोजन रूप कारण ऐसा है, कि यदि वे ज्ञान છે, કારણ કે તે સમયે ભૂમિ દ્વીન્દ્રિય દિ જીવથી વ્યાપ્ત હોય છે. આ રીતે વર્ષાકાળમાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવાનો નિષેધ ફરમાવીને હવે સૂત્રકાર તેના જે અપવાદ છે તે પ્રકટ કરે છે नहि ठाणेहिं कप्पह" त्याहि-नयना पांय ४२ माथी है। પણ કારણ ઉપસ્થિત થાય તે એવા સંગમાં વર્ષાઋતુમાં પણ સાધુ સાધ્વીને सामथी भी राम विडार ४२३॥ ४६ छ " वासावासं पज्जोसवियाणं णो कप्पड" त्याहि-वर्षामा छ ममा २३॥ साधु सोपान त ગમથી બીજે ગામ વિહાર કરશે તે ઉચિત નથી-એવું કરવું તે શાઆજ્ઞાથી वि३ छ. ५२-तु " घंचहि ठणेहि कप्पइ तजहा णाणट्टयाए१" त्याल નીચે બતાવેલા પાંચ કારણોને લીધે તેઓ વર્ષાઋતુમાં પણ એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરી શકે છે– શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૪
SR No.006312
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size42 MB
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