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________________ मा--- सुघा टीका स्था० ३ उ० २ सू० ४३ स्वमतनितपणम् तृतीयं च न पृच्छन्ति एतत्त्रयस्याऽत्यन्तरुचेरविषयकया तेषां तद्विषयकप्रश्नेऽ. प्यमत्तेः । तत्र या सा कृताा क्रियते यत्तत्कर्म कृतं भवति दुःखायेति नो तत्ते पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्वेन जैनदर्शनसंमतत्वेन च तेषामसंमतत्वादिति १। 'तत्र या सा कृता नो क्रियते' इति, तत्र-तेषु भङ्गाकेषु मध्ये यत्तत्कर्म, कृतं न भवति नो तत्पृच्छन्ति, 'कृतं न भवति' इत्यनयोरत्यन्तपिरोधेनाऽसम्भवात् , विरोधो यथा-कृतं चेत् कर्म कथं ' न भवति ' इत्यु. " कृता क्रियते .१, कृता नो क्रियते २, अकृता नो क्रियते ३, अकृता क्रियते ४" इनमें प्रथम, द्वितीय, और तृतीय भंग को उन्हों ने नहीं पूछा है क्योंकि ये तीन रूचि के अत्यन्त-बिलकुल अविषय हैं अतः तद्विषयक प्रश्न में भी उनकी प्रवृत्ति नहीं हुई है " कृता क्रियते" जो कर्म कृत होता है वह दुःख के लिये होता है ऐसा जो वे नहीं पूछ रहे हैं उसका कारण ऐसा है कि जो पूर्वकाल में कृत होता है वह अप्र. त्यक्ष होता है अतः उसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती है यद्यपि जैनदर्शन उनकी इस बात को नहीं मानता है पर वे तो ऐसा मानते हैं इसीलिये उन्हों ने ऐसा नहीं पूछा है “ या सा कृता नो क्रियते " ऐसा भी उन्हों ने जो नहीं पूछा है-उसका कारण ऐसा है कि जो " कृतं " होता है वह " न भवति" ऐसा नहीं होता है क्यों कि " कृतं" में और न भवति" में परस्पर में अत्यन्त विरोध आता है अतः यह बात असंभव है विरोध इस तरह से है यदि वह कर्म कृत है तो " न भवति" (3) अकृता नो क्रियते, (४) अकृता क्रियते " A! या२ माथी पहेलो, બીજે, અને ત્રીજો ભાગે તેમણે પૂછયે નથી, કારણ કે ત્રણ રુચિના બિલકુલ भविषयभूत छ; तेथी त विना प्रश्नोमा तभनी प्रवृत्ति नथी. “ कृता क्रियते " "२ मत राय छ मन निमित्त ३५ मन छ " । પ્રકારને પ્રશ્ન તેઓ પૂછતા નથી કારણ કે જે પૂર્વકાળમાં કૃત હોય છે તે અપ્રત્યક્ષ હોય છે, તેથી તેની સત્તા સિદ્ધ થતી નથી. જો કે જૈનદર્શન તેમની આ વાતને માનતું નથી, પરંતુ તેઓ તે એવું માને છે, તેથી તેમણે એ પ્રશ્ન કર્યો નથી. " या सा कृता नो क्रियते " मारने प्रश्न ५ तेमणे ५७ये। नयी ४।२६ " कृतं" डाय छे ते “ न भवति" मे डातुं नयी १२५ है "कृत" मन “भवति" मा मन्ने ५२ये ५२२५२मा अत्यन्त विरोध छ, તેથી આ વાત અસંભવિત છે. વિધ આ પ્રમાણે છે-જે તે કમંત હોય શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨
SR No.006310
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages819
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size47 MB
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