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________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सू० २० प्रमाणस्वरूपनिरूपणम् ५२७ छाया - चतुविधं प्रमाणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-द्रव्यप्रमाणं १, क्षेत्रमाणं २, काप्रमाणं ३, भावप्रमाणम् ४। । सू० २० । " " टीका - " चउत्रिहे पमाणे " इत्यादि प्रमाणं - प्रमितिः प्रमाणम्, यद्वाप्रमीयते = परिच्छिद्यतेऽनेनेति प्रमाणं तच्चतुर्विधं चतुष्प्रकारं मज्ञप्तम् तद्यथाद्रव्यप्रमाणं, क्षेत्रत्रमाणं, कालप्रमाणं, भावप्रमाणम् । तत्र द्रव्यप्रमाणम् - द्रव्यमेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम्, यद्वा-द्रव्येण दण्डादिना प्रमाणं परिच्छेद इति, यथा दण्डादिना द्रव्येण धनुरादिना वा शरीरादेः प्रमाणं क्रियते, यद्वा-द्रव्यस्य जीवादेः प्रमाणम्, यद्वा- परमाण्वादौ द्रव्ये पर्यायाणां प्रमाणम् - द्रव्यप्रमाणाम्, तत्र द्रव्य प्रमाणं द्विविधं - प्रदेशनिष्पन्नं १, विभागनिष्पन्नं २ च तत्राऽऽद्यं - परमाण्वाद्य. सूत्रार्थ प्रमाण चार प्रकारका कहा गयाहै, जैसे- द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । टीकार्थ प्रमिति (जानना) का नाम प्रमाण है अथवाजिसके द्वारा जाना जाता है वह प्रमाण है । यह प्रमाण द्रव्य आदि के भेद से जो चार प्रकारका कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि द्रव्यरूप जो प्रमाण है वह द्रव्यप्रमाण है अथवा - दण्डादि द्रव्यसे जो परिच्छेद होता है वह द्रव्यप्रमाण है जैसे दण्ड आदि द्रव्यसे, अथवा धनुष आदि से शरीरका माप किया जाता है, अथवा जीवादि द्रव्यका जो प्रमाण है वह द्रव्यप्रमाण है । अथवा परमाणु आदि में पर्यायोंके प्रमाण है वह द्रव्यप्रमाण है । प्रदेश निष्पन्न और विभाग निष्पन्न के भेदसे द्रव्यप्रमाण दो प्रकारका कहा गया है। परमाणुसे लेकर अनन्त प्रदेशवाले द्रव्य तकका जो प्रमाण है वह प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाण है । सूत्रार्थ - प्रभाणुना यार अमर ह्या छे, ते प्रा। नीये प्रमाणे छे – (१) द्रव्यप्रभाशु, (२) क्षेत्रप्रभाणु, (3) अवप्रभा भने (४) भावप्रमाथ टीअर्थ - प्रभितिने प्रभाणु उडे छे. ' अमिति' मेटसे भावु ते. सेना द्वारा જાણી શકાય છે, તે પ્રમાણુ છે હવે તેના ચાર ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-દ્રવ્યરૂપ જે પ્રમાણ છે તેને દ્રવ્યપ્રમાણ કહે છે. અથવા "ડાદિ द्रव्यथी ( पहार्थ थी ) ने परिछे ( ज्ञान - नारी ) थाय छे तेनुं नाभ द्रव्य પ્રમાણ છે જેમકે-દંડ આદિ દ્રવ્યથી અથવા ધનુષ આદિથી શરીર આદિનું માપ જાણી શકાય છે, તે માપ દ્રવ્યપ્રમાણુ રૂપ ગણાય છે. અથવા-જીવાદિ દ્રવ્યનું જે પ્રમાણ છે, તે દ્રશ્યપ્રમાણ છે. અથવા પરમાણુ આદિમાં પર્યાયનું જે પ્રમાણ છે તે દ્રવ્યપ્રમાણુ છે. પ્રદેશનિષ્પન્ન અને વિભાગ નિષ્પન્નના ભેદથી દ્રવ્યપ્રમાણુ એ પ્રકારનું કહ્યું છે. પરમાણુથી લઇને અનન્ત પન્તના પ્રદેશવાળા દ્રવ્યનું જે શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨
SR No.006310
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages819
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size47 MB
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