SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुघा टीका स्था० ३ उ०४ सू. ७८-८० पुद्गलपरिणामवशेषनिरूपणम् २९५ पूर्व चक्षुष्मान प्रोक्तः, तस्य चाभिसमागम इति वस्तुपरिच्छेदो भवतीति तं दिग्भेदेन विभजते-'तिविहे अभिसमागमे ' इत्यादि । त्रिविधः-त्रिप्रकारः अभिसमागमः, 'अभि' इत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपर्यासरूपतया 'सम्' इति सम्यक् न संशयतया, 'आ' इति मर्यादया गमनं ज्ञानं ' ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः' इति वचनात् , अभिसमागमः-पदार्थ-परिच्छेदः । स त्रिविधस्तद्यथा-ऊर्ध्वम्विवक्षा से तो वे भी तीन चक्षुष्मानों में गृहीत हो जावें तो इसमें कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार से चक्षुष्मान् का कथन करके अब सूत्रकार उसके अभिसमागम का दिग्भेद को लेकर कथन करते हैं-"तिविहे अभिसमागमे-" इत्यादि। अभिसमागम का अर्थ पदार्थ का परिच्छेद होना है, अर्थात् चक्षुष्मान् को जो पदार्थ का परिच्छेद होता है यह अभिस मागम है, अभिसमागम में "अभि" उपसर्ग है इसका अर्थ है विपयोस (विपरीतता) से रहित होकर गम (ज्ञान का) होना वह अभिगम है साथ में " सम" और "आ" ये दो उपसर्ग और भी हैं, सो इनका अर्थ ऐसा है कि-जैसा वह ज्ञान विपरीतता रहित होता है उसी प्रकार से उसे “ सम" सम्यक रूप भी होना चाहिये, संशयरूप नहीं। और "आ" यह मर्यादा अर्थ में आया है “ गम" यह गत्यर्थक गम् धातु से बना है, मो " ये गत्यर्था स्तेज्ञानार्थाः" इस कथन के अनुसार जो નામાં ચક્ષુરિન્દ્રિય જન્ય ઉપયોગનો અભાવ રહે છે. દ્રન્દ્રિયની અપેક્ષાએ તેમને ત્રણ ચક્ષુવાળા કહેવામાં આવે, તે એમાં કઈ વાંધો નથી. ૮૦ મા સૂત્રના ભાવાર્થનું નિરૂપણ–ચક્ષુષ્માનનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના અભિસમાગમ ( વિપરીતતાથી રહિત જ્ઞાન ) નું દિગુભેદની अपेक्षा ४थन ४२ छ-" तिविहे अभिसमागमे" त्या: અભિસમાગમ એટલે કે પદાર્થને પરિચ્છેદ થવે તે. અભિસમાગમમાં 'मHि ' S५A छे. तो मर्थ · विपर्यास (विपरीत) थी २हित' थाय छे. भने 'सम' से 'ज्ञान'. “ विपर्यासथी २डित सेवा जानने 'मिराम' ४ छ. ” मनिराम ५४नी साथे “ सम" मने " " ७५. સર્ગો પણ આવેલા છે. તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે-જેમ તે જ્ઞાન વિપરીતતાથી રહિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે સમ્યક્રૂપ પણ હોવું જોઈએ-સંશયરૂપ હોવું ने नहीं. "आ" सग भर्या। अर्थमा प्रयुत थयो छ. " गम" 40 ५६ गत्यर्थ 'गम्' धातुमाथी मन्युं छे. “ ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः" । શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨
SR No.006310
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages819
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy