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________________ सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ७३ कल्पस्पितिनिरूपणम् २६५ एव सन्तीति । समुद्रेषु-सर्वसमुद्राणां मध्ये इत्यर्थः, स्वयम्भूरमणः समुद्रो महान् वर्त्तते तस्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात् । कल्पेषु-सर्वदेवलोकेषु मध्ये ब्रह्मलोकः कल्पः-पश्चमदेवलोको महान् अस्ति, तत्पदेशे लोकविस्तरस्य पश्चरज्जुप्रमाणत्यात् , तत्प्रमाणतया च ब्रह्मलोकस्य विवक्षितत्वादिति ॥सू०७२॥ अनन्तरं ब्रह्मलोककल्प उक्त इति कल्पशब्दसाधर्म्यात् कल्पस्थिति सूत्रद्वयेनाह मूलम्-तिविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-सामाइयकप्पठिई, छेदोवट्ठावणियकप्पट्टिई, निविसमाणकप्पट्टिई । १। अहवा तिविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-णिविटुकप्पट्टिई, जिणकप्पदिई, थेरकप्पट्टिई । २ ॥ सू० ७३ ॥ - छाया-त्रिविधा कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा सामायिककल्पस्थितिः, छेदोपस्थापनीयकल्पस्थितिः, निर्विशमानकल्पस्थितिः।१। अथवा त्रिविधा कल्पस्थितिः कहा गया है समुद्रों में स्वयम्भूरमण समुद्र है यह सब से बडा कहा गया है, क्यों कि-सब द्वीपों और समुद्रों से इसका प्रमाण अधिक है, कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प हैं पांचवां देवलोक है-वह सब से बडा कल्प है, क्यों कि-इसके प्रदेश में लोक विस्तार पांच राजू का कहा गया है सो इतने ही बडे प्रमाणवाला यह ब्रह्मलोक भी कहा गया है। सू०७२। ब्रह्मलोक कल्पगत कल्प शब्द के साधर्म्य को लेकर अब सूत्रकार कल्पस्थिति का कथन दो सूत्र से करते हैं-"तिथिहा कप्पट्टिई पण्णत्ता" इत्यादि, सूत्रार्थ-कल्पस्थिति तीन प्रकारकी कही गई है जैसे-सामायिककल्प બધા સમુદ્રોમાં સૌથી મોટો સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર છે, કારણ કે સઘળા દ્વીપ અને સમુદ્રો કરતાં તેનું પ્રમાણ અધિક કહ્યું છે. બધાં કલ્પમાં બ્રહ્મક ક૯પ સૌથી મોટું છે, બ્રહ્મલેક કપ પાંચમું દેવક છે. તેને સૌથી મોટું કદ કહ્યું છે કારણ કે તેના પ્રદેશમાં લેકવિસ્તાર પાંચ રાજપ્રમાણુ કહ્યો છે. આ બ્રહ્મલોક ક૯પ પણ પાંચ રાજુપ્રમાણ विस्तारवाणु युं छे. ॥ सू. ७२ ।।। બ્રહ્મક ક૯પગત ક૯પ શબ્દના સાધમ્મને હવે સૂત્રકાર કહ૫સ્થિતિનું કથન કરવા નિમિત્તે બે સૂત્રો કહે છે– " तिविहा कप्पदिई पण्णत्ता" त्याह सूत्राथ-४८पस्थिति मारनी ही छे-(१) सामायि४४८५स्थिति, (२) छ ।पस्थापनीय ४६५स्थिति, मन (3) निविशमान ४८५स्थिति. था ३४ શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્રઃ૦૨
SR No.006310
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages819
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size47 MB
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