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सुघा टोका स्था०१ उ० १ सू०१२ पापस्यरूपनिरूपणम् त्यात् दुःखप्रकर्षानुभूतिवत् । यथा दुःखमकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापप्रकर्षजनितेति त्ययाऽभ्युपगम्यते, तथा सुखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपुण्यकर्म प्रकर्षजनिता भविध्यति । इत्थं च सुखकारणत्वेन पुण्यं स्वीकतव्यमेवेति ॥ सू०११ ॥
अथ पुण्यप्रतिपक्षभूतं पापं प्ररूपयति--
मूलम्--एगे पाये ॥ सू० १२ ॥ छाया-एकं पापम् ॥ सू० १२ ॥ व्याख्या-'एगे' इत्यादि।
पापम्-पांशयति-मलिनयति-सरजस्कं करोत्यात्मानमिति पापम् । यद्वापातयति-प्रक्षिपति नरकादिषु जीवानिति पापम् । तच्च एकम् एकत्वसंख्यावत् । उत्पन्न होती है क्यों कि वह प्रकर्षानुभूति रूप होती है। जैसे दुःख प्रकर्षानुभूति, दुःखप्रकर्षाभूति स्वानुरूप पाप के प्रकर्ष से जनित होती है ऐसा स्वीकार किया गया है तो इसी तरह से यह भी स्वीकार करना चाहिये कि सुखप्रकर्षानुभूति भी स्वानुरूप पुण्यकर्म के प्रकर्ष से जनित होगी इस तरह से सुख का कारण होने से पुण्यतत्त्व स्वतंत्र तत्व है ऐसा स्वीकार करना ही चाहिये ॥ सू० ११ ॥ ___ पुण्य के प्रतिपक्षभूत पाप की प्ररूपणा इस प्रकार से है " एगे पावे" इत्यादि ॥१२॥ मूलार्थ-पाप एक है ।१२।। टीकार्थ-जो आत्मा को "पांशयति" मलिनकरता है वह पाप है।
अथवा-"पातयति" जो आत्मा को नरकादिकयोनियों में डालना है वह पाप है यह पाप एक है एकत्व संख्याविशिष्ट है इन कथित હોય છે, જેમકે દુઃખ પ્રકર્ષાનુભૂતિ, દુઃખ,કર્ષાનુભૂતિ તેને અનુરૂપ પાપના પ્રકર્ષથી જનિત હોય છે એ સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો છે, તે એ વાતને પણ સ્વીકાર કરે જોઈએ કે સુખપ્રકર્ષાનુભૂતિ સ્વાનુરૂપ (તેને અનુરૂપ) પુણ્યકર્મના પ્રકર્ષથી જનિત હશે. આ રીતે સુખનું કારણ હોવાથી પુણ્યતત્વ સ્વતંત્ર તત્વ છે, એ સ્વીકાર કરે જ જોઈએ. એ સૂ૦૧૧ .
પુણ્યના પ્રતિપક્ષભૂત પાપની પ્રરૂપણ આ પ્રમાણે છે– " एगे पाये" त्यादि सूत्राथ--पा५ से छे.
At-मात्भाने “ पांशयति ” मसिन ४२ छ त पा५ छे. मया " पातयति" २ मामाने न२४६ योनिमा नामेछ, ते ५.५ मे छ. २
શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૧