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________________ ६५० सूत्रकृताङ्गसत्र अन्वयार्थः-(सव्वेसि) सर्वेषाम् (जीवाणं) जीवानां त्रसस्थावराणाम् (दययाए) दयार्थाय-दयां कर्तुम् (सावज्जदोस) सावद्यदोषम् सावद्यारम्भम् (परिवजयंता) परिवर्जयन्तः-त्यजन्तः (नरसंकिणो) तच्छकिनः (इसिणो) ऋषयः (नायपुत्ता) ज्ञातपुत्राः (उद्दिदुभत्त) उद्दिष्टभत्ताम्-ओदेशिकाहारम् (परिवज्जयंति) परिवर्जयन्ति-परित्यजन्तीति ॥४०॥ टीका-आर्द्रको मुनिः पुनरप्याह-हे भिक्षो ! आर्हतमतसर्वस्वं श्रूयताम्मोक्षार्थिना मांसभक्षणं तु कदापि न कर्तव्यम् । किंबहुना उद्देशकाहारोऽपि हातव्य 'सव्वेसि जीवाणं' इत्यादि ! शब्दार्थ-'सव्वेसिं-सर्वेषां' समस्त 'जीवाणं-जीवानां त्रस और स्थावर जीवों के ऊपर 'दयट्टयाए-दयार्थाय' दया करने के लिए 'साव. जदोसं-सावद्यदोषं' सावद्य दोष का 'परिवजयंता-परिवर्जयन्तः' त्याग करने वाले 'तस्संकिणो-तत् शकिनः' तथा सावद्य दोष की आशंका करनेवाले 'उसिगो-ऋषयः' 'नायपुत्ता-ज्ञातपुत्राः' ज्ञातपुत्रके अनुयायी 'उद्दिमत्तं-उद्दिष्ट भक्तम्' औद्देशिक आहार का 'परिवज यति-परिवर्जयन्ति' परित्याग करते हैं ॥४०॥ अन्वयार्थ-जगत् में निवास करने वाले समस्त बस और स्थावर जीवों की दया के लिए सावद्य दोष का परित्याग करने वाले तथा सावद्य की अशंका करने वाले ज्ञातपुत्र के अनुयायी संयमी मुनि औदेशिक आहार का परित्याग करते हैं ॥४०॥ ___टीकार्थ-आईक मुनि फिर कहते हैं-भाईतमत के सर्वस्व को सुनो-मोक्षार्थी को मांस का भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए। अधिक 'सव्वेसिं जीवाण' त्या शहाथ-'सव्वेसि-सर्वेषां' सघणा 'जीवाणं-जीवाना' समन स्था१२ ५२ 'दयटयाए- दयार्थाय' या ४२वा माटे 'सावज्जदोसं-सावद्यदोष' साप घोषने। 'परिवज्जयंता-परिवर्जयन्त:' त्याग ४२११ 'तस्संकिणा-तत शकिनः' तथा सा होषनी । ४२वावा 'उसिणो-ऋषयः' पि मेया 'नायणुत्ता ज्ञातपुत्राः' ज्ञातपुत्रना अनुयायी 'उहिदभत्त-उद्दिष्टभक्तम्' मौदेशि माहारना 'परिवज्जयति-परिवर्जयन्ति' त्याग ३ छे. ॥१॥०४०॥ અન્વયાર્થ-જગમાં વસતા સઘળા ત્રસ અને સ્થાવર જીની દયા માટે સાવદ્ય દોષનો ત્યાગ કરવાવાળા તથા સાવધની શંકા કરવાવાળા જ્ઞાતપુત્રના અનુયાયી સંયમી મુનિ ઔદેશિક આહારને પરિત્યાગ કરે છે. ૧૪૦ ટીકાર્ય–આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–આહત મતના સિદ્ધાંતને સાંભળો–મોક્ષની ઈચ્છાવાળા આત્માઓએ કદાપિ માંસનું ભક્ષણ કરવું ન જોઈએ, श्री सूत्रतांग सूत्र : ४
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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