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समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६१५ भवति सोऽपि च लाभो न स्वेच्छामात्रेण यथेष्टं भवति किन्तु यावत्पुण्योदय स्तावदेव भवतीति ॥ २३॥
मूलम् - गंत णच्चंतिय उदए एवं वैयंति ते दो विगुणोदयंमि ।
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से उदय साईमतपत्ते तमुदयं साहयेंइ ताई फाई | २४| छाया - नैकान्तिको नात्यन्तिक उदय एवं वदन्ति द्वौ विगुणोदयौ । स उदयः सायन्तप्राप्त स्तमुदयं साधयति त्रायी ज्ञायी ||२४|| दुःखों का ही कारण होता है। वह लाभ जब तक पुण्योदय है तभी तक रहता है और स्वेच्छा मात्र से यथेष्ट नहीं होता ||२३||
'तणकचंतिय' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ' एवं उदए - एवं उदयः' धनलाभ आदि रूप पूर्वोक्त उदय 'गंत णच्वंति य-नैकान्तिको नात्यंतिका' न ऐकान्तिक हैं और ज आत्यन्तिक है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं । 'ते दो विगुणोदयंमि-तौ द्वौ विगुणोदयौ' उदय में वह दोनों गुण रहित है, वह वास्तव में उदय नहीं है वह उदय गुणरहित है, किन्तु 'से उदए-स उदयः' तीर्थकर भगवान् का वह उदय 'सामर्णतपत्ते- साद्यनन्तप्राप्तः' सादि और अनंत है 'ताई णाई - त्रायी ज्ञापी' जीवों के त्राता और सर्वज्ञ भगवान् 'तमुदयंतमुदयं' वह केवलज्ञान लक्षण उदय का 'साहयइ - साधयति' दूसरों को भी उपदेश करते हैं || गा. २४ ॥
દુઃખાનું જ કારણ હાય છે. તે લાભ, જ્યાં સુધી પુણ્યના ઉદય હાય છે, ત્યાં સુધી જ રહે છે, અને સ્વેચ્છા માત્રથી યથેચ્છ પ્રકારના તે લાભ હાતા નથી. રા 'गत णच्चंतिय' इत्याहि
शब्दार्थ - - ' एवं उदए - एवम् उदय' धन साल विगेरे प्रहारनो पहेसां आहेस हय 'गंत णच्चंतिय- नैकान्तिको नात्यंतिकश्च येान्ति नथी तेभ आत्यंति! पणु नथी. या प्रमाणे ज्ञानी ना हे छे. 'ते दो विगुणोदयमितौ द्वौ विगुणोदयौ' थे यमांमा भन्ने शो होता नथी. वास्तवि रीते ते ह हेवात नथी. ते उदय गुण वगरनो छे, परंतु 'से उदए - स उदयः' तीर्थ ५२ भगवानने। ते हय 'साइमणंत पत्ते- साद्यनन्तप्राप्तः' साहि भने अनंत छे. 'तमुदयं - तमुदय' ते जेवण ज्ञान ३५ उयना 'ताई णाई - त्रायी ज्ञायी' लवोनुं त्राण-रक्षण ४२वावाजा मने सर्वज्ञ लगवानू 'साहयइ - साधयति' ખીજાને પણ ઉપદેશ આપે છે, ારકા
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૪